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सिखों ने मस्जिद के पुनर्निर्माण और इसे मुसलमानों को सौंपने का निर्णय लिया

 खबर किसी भी अखबार या चैनल में नजर नहीं आई
 साभार : खुशवंत सिंह ।  दैनिक जागरण
सैयद शहाबुद्दीन की साप्ताहिक पत्रिका द मिली गैजेट में संपादक जफरूल इस्लाम खान की एक रिपोर्ट छपी थी, जो मैं समझता हूं कि हमारी सभी भाषाओं के प्रत्येक राष्ट्रीय दैनिक की पहली खबर होनी चाहिए थी। किंतु अफसोस कि यह खबर किसी भी अखबार या चैनल में नजर नहीं आई।
 खबर के अनुसार, पंजाब में समराला कस्बे से लगभग 10 किलोमीटर पर सरवरपुर नामक एक गांव है। 1947 में देश के विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के कारण ज्यादातर आबादी पाकिस्तान चली गई थी और मस्जिद को हिंदू और सिखों ने ध्वस्त कर दिया था। पिछले वर्ष गांव के सिखों ने मस्जिद के पुनर्निर्माण और इसे मुसलमानों को सौंपने का निर्णय लिया।
 

22 मई को एसजीपीसी के जत्थेदार कृपाल सिंह क्षेत्र के विधायक जगजीवन सिंह और सभी ग्रामवासियों ने मौलाना हबीबुर रहमान सानी लुधियानवी का स्वागत किया और मस्जिद की चाबियां सबसे वृद्ध मुस्लिम ग्रामवासी दादा मोहम्मद तुफैल को भेंट की। अल्लाह हू अकबर से आकाश गूंज उठा। 

उपस्थित व्यक्तियों में पंजाब वक्फ बोर्ड के चेयरमैन मोहम्मद उस्माद रदानवी भी थे। मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि लोगों ने क्या कर दिखाया! उन्होंने वही किया जो गुरु नानक को उनसे अपेक्षा होती, जिनका पहला शिष्य भाई मर्दाना मरते दम तक मुसलमान ही रहा; 

उन्होंने वही किया जो आदिग्रंथ के संकलनकर्ता और हरिमंदिर (आज का स्वर्णमंदिर) के निर्माता गुरु अरजन देखकर प्रसन्न होते, जिसकी नींव लाहौर के सूफी संत हजरत मियां मीर ने रखी थी। इसी तरह महाराजा रंजीत सिंह भी खुश होते, जिनकी महारानी ने दातागंज बक्श की सफेद संगमरमर की दरगाह का निर्माण कराया था जो आज लाहौर में सबसे लोकप्रिय सूफी मजार है। 

मैं नहीं समझता कि मीडिया द्वारा अपनी गलती सुधारने के लिए अभी बहुत देर हुई है। अभी भी इस ऐतिहासिक घटना को दिखाया जा सकता है। अखबार तथा टीवी चैनल वाले सरवरपुर जाकर पुनर्निर्मित मस्जिद की तस्वीरें ले सकते हैं और ग्रामवासियों का इंटरव्यू कर सकते हैं। 

वे देशवासियों को बता सकते हैं कि एकजुट रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए। वे अयोध्या ढांचे को ध्वस्त करने वालों के लिए विशेष शो रख सकते हैं जिनमें एलके आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी रितंभरा, हिंदू महासभा वाले, शिव सेना, बजरंग दल के लोग और अन्य व्यक्ति शामिल हों, जो इनके जहरीले विचारों से सहमति रखते हैं। 

परिणाम बहुत ही आश्चर्यजनक होगा। मुझे यकीन है कि स्वर्ग में महात्मा गांधी सरवरपुर के लोगों को अपना आशीर्वाद दे रहे होंगे। मुराद अली : एक शाम गीती सेन, जो काठमांडु में भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक काउंसलर हैं, अपने साथ बेटे मुराद को लेकर आईं। 

मैंने उसे 1969 में देखा था जब वह छोटा बच्चा था। मैं और उसके माता-पिता कफ परेड में एक ही ब्लाक के फ्लैटों में रहते थे। उसने बहुत नाम कमाया है। लारेंस स्कूल, सनावर में उसकी शिक्षा हुई और सईदनहम कालेज, मुंबई से डिग्री ली। वह पेरिस और अमेरिका में विभिन्न संस्थानों में एक्टिंग और फिल्में बनाने के लिए गया। 

अपने माता-पिता के अलग हो जाने के बाद और अपनी खुद की जिंदगी बिखर जाने के बाद से वह निजामुद्दीन में अकेला रहता है और पढ़ने, लिखने तथा उर्दू शायरी में वक्त बिताता है। उसने भारत और नेपाल के अनेक शहरों में अपनी कला का प्रदर्शन किया है। 

मैं उसकी याददाश्त से आश्चर्यचकित रह गया। मैं अगर किसी उर्दू शायर का एक शेर कहता तो वह पूरी गजल सुना देता और इसके साथ ही अपनी पसंद की और बहुत सारी चीजें। मुझे ध्यान आया कि ज्यादातर मुशायरों में शायर अपनी ही रचनाओं का पाठ करते हैं और बेहतर शायर अकसर आधी रात के बाद मंच पर आते हैं। 

अगर स्कूलों और कालेजों में जहां हिंदुस्तानी समझी जाती है और मुराद अली जैसे लोगों को पुराने और नए शायरों की रचनाओं को पढ़ने के लिए बुलाया जाता है तो इससे उर्दू शायरी के प्रति हमारी मोहब्बत को नया जीवन मिल सकता है। 
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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