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अप्रैल फूल यानी मूर्ख बनाने का बारह मासी त्यौहार

 निर्लोभ मूर्ख बनाने की प्रथा
एक अप्रैल को अब मूर्ख दिवस कहने की परम्परा पर थोड़ा गौर फरमाने की जरूरत है। इस दिन की  परम्परा की खास विशेषता थी, मूर्ख बनने वाले की नादानी या सीधा सरल होना तथा बनाने वाले का उतना ही चतुर और व्यत्युत्पन्नमति के गुणो के से लवरेज होना।
इससे भी महत्वपूर्ण था हास-परिहास के लिये स्नेह पूर्वक और निर्लोभ मूर्ख बनाने की प्रथा। वर्ष में एक दिन उल्लास के लिये एक अलग दिन के स्थान पर अब मूर्ख बनाने का पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। अब यह काम रोज हो रहा है, खुले आम हो रहा है, हर स्तर पर हो रहा है, बेखौफ हो रहा है और इससे भी बड ी बात, अपनी स्वार्थसिद्धि और दूसरों को शोषण करने के लिये हो रहा है।
अखरने वाली बात यह है कि बनने वाले को अच्छी तरह मालूम है कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है परन्तु वह बोलने का साहस नहीं कर पा रहा। बनाने वाले को भी उस मजबूरी का पूरा अहसास है जिसके चलते विरोध की गुंजाइश न्यूनतम होने का अखण्ड विश्वास होता है।
इस मजबूरी को बनाये रखने के लिये बाकायदा संस्थाएँ हैं, नियम-कायदे हैं, अधिकार हैं, कानूनी उलझने हैं, डराने धमकाने के साधन हैं और इसके साथ शोषण कर्त्ताओं का एक मजबूत गठबन्धन है। यदि गौर किया जाये तो यह परिस्थिति हमारी लगभग हर व्यवस्था में मिल जाएगी और शायद इसी लिये अब यह एक दिनी समारोही मूर्खता व्यवस्था का स्थाई भाव बनता जा रहा है। यह स्थिति बेहद खतरनाक और चिंताजनक है।
आज हमें मूर्ख बनने की मजबूरियों के विरूद्ध संघर्ष का निनाद करने की जो आवश्यकता है उस पर विचार करना उचित होगा।
        आप इस सहमत होंगे कि हमें रोज सत्ता, शक्ति और धन के बल पर ही नहीं वरन्‌ धर्म के नाम पर, लोकसेवा के नाम पर और श्रृद्धा के नाम पर भी मूर्ख बनाया जा रहा है। यही नहीं, इसके लिये दया, सहृदयता तथा विश्वास जैसे सहज मानवीय गुणों के दुरूपयोग के उदाहरण भी मिल रहे हैं। 
मेरे एक मित्र ने एक प्लाट पाँच लाख रूपये में खरीदा जो बेचने वाले ने इसके पहले अपने घर वालों के नाम चार बार बेचकर उसकी रजिस्ट्री पर अलग-अलग बैंकों से कर्ज लिया और अन्त में उसे मेरे मित्र को बेच दिया। अब खरीदने वाले के पास बैंकों से प्लॉट की दावेदारी और लिये गये कर्ज के नोटिस आ रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि बेचने वाला व्यक्ति न्यायालय का कर्मचारी है तथा बैंक में दी जाने वाली सत्यापन रिपोर्ट एक ही वकील की है।
इस तरह की घटनाएँ वैसे तो आम है पर यह इसकी चर्चा में इसलिये कर रहा हूँ कि वह न्यायालय का कर्मचारी खम ठोककर यह स्वीकार करता है '' हाँ मैने तुम्हें मूर्ख बनाया और तुम बने यह तुम्हारी मूर्खता है मै तो ऐसा पिछले सत्रह वर्षों से कर रहा हूँ।'' क्या ऐसा बेखौफ मूर्ख बनाना और वह भी कानून के रखवालों के हांथों यह सिद्ध नहीं करता की आज यह तो मूर्ख बनने वाला या तो मजबूर है या असहाय? यह एक अप्रैल के आनंदमयी मूर्खता से कितना भिन्न है?
अब यदि मूर्ख बनाने वालों का वर्गीकरण किया जाए तो हम पाएँगे कि सत्ता के बल पर राजनैतिक, अधिकार के बल पर प्रशासन और कर्मचारी, निर्वैकल्पिकता के दम पर पुलिस और न्याय व्यवस्था, विश्वास के नाम पर धार्मिक तथा समाज सेवी संस्थाएँ हमें मूर्ख बना रही हैं। 
चारों ओर मनुष्य असहाय सा रोज मूर्ख बन रहा है। मूर्ख बनाने के इस ३६५ दिनी व्यवसाय ने समाज में एक-दूसरे के प्रति सहज विश्वास को ऐसा झटका दिया है कि हर आदमी एक दूसरे पर शक करने लगा है अधिकांश अवसरों पर मूर्ख बनने वाला व्यक्ति जानकर भी चुप रहता है और मूर्ख बनाने वाले के प्रति श्रृद्धा और सम्मान का स्वांग करते रहने में ही अपनी भलाई समझता है। 
मूर्ख बनाने वाले को भी सच का अहसास न होता हो ऐसा नहीं है परन्तु वह इससे मानने के स्थान पर सामने वाले के मजबूरी को भुनाकर अपनी मनमानी करने को ही उचित समझता है। शायद इसी लिये शिक्षक, डॉक्टर, वकील, राजनेता और समाजसेविओं के प्रति श्रृद्धा और सम्मान में कमी आई है। 
इसके प्रति जब यह वर्ग घड़ियाली आंसू बहाता है तब उसे केवल दूसरों को मूर्ख न बनाने की बात याद दिलायी जानी चाहिए तभी मूर्ख बनने के प्रति लोगों का संघर्ष आरंभ होगा। 
अब १ अप्रैल की एक दिनी नहीं पूरे ३६५ दिनों की मूर्खता से निपटने का संकल्प लेना होगा। यह कार्य कठिन अवश्य है परन्तु इसके पीछे जो स्वार्थ हैं उन्होंने मूर्खता के १ अप्रैल के एक दिवसीय समारोह को बेमजा कर दिया है। इसे फिर से वापिस लाना होगा।

1 comment:

  1. I think we should celebrate this april Irst as Not to be fool today. becoz as you say we are fooled 365 days, I aso support your sentence. So I too sugest to celebrate this day as opposite of Fools day

    Scorpio

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