आम चुनावों के आगाज के साथ देश के राजनैतिक रंगमंच पर एक बार फिर उठापटक, जोड -तोड , मिलना-बिछडना, आरोप-प्रत्यारोप और वायदे-घोषणाओं का ऐसा मंजर देखने मिल रहा है जिसमें देश में लोकतंत्र के कायम रहने के तत्त्व के अलावा कुछ भी सुकून देने वाला नहीं है।
भारतीय राजनीति का यह कर्मकांड मात्र चेहरे बदल रहा है, परिस्थितियाँ नहीं। हॉलाकि कभी चुनाव आयोग तो कभी न्यायपालिका की सक्रियता से सुधार की चिंगारी में फूँक अवश्य पड ती है पर राजनैतिक स्वार्थों का अंधड उसे परिवर्तन की आग नहीं बनने देता।
इस माहौल के चलते १०० करोड से अधिक की हमारी लोक-शक्ति एक मुर्दा समाज की तरह व्यवहार करती दिखने लगी है। आँखों के सामने गलत होते देख अंधी, गूँगी और बहरी बनती इस लोकशक्ति को हर तरह से मूर्ख बनाया जाना सहज हो रहा है। क्या यह एक सुनियोजित षढयंत्र नहीं है कि हम सब चुप रहने को समझदारी समझने लगे हैं।
याद कीजिये, देश में आपातकाल के बाद कोई जन आंदोलन पैदा नहीं हुआ जबकि इस काल में राष्ट्रीय हितों की लगातार गंभीर उपेक्षा हुई। क्या आज हम उन षड यंत्रों के प्रति जागरूक हैं जो राष्ट्र की चेतना को धीमा जहर देकर नष्ट कर रहे हैं? चुनाव-दर-चुनाव मतदाता की बढ ती समझदारी की अनुकूलता के बीच इस मुद्दे पर भी आज विचार होना चाहिये।
लोक शक्ति को कुंद करने में स्वतंत्रता के बाद सफल हुए इन षड यंत्रों पर यदि विचार किया जाए तो उनमें सूचनाएं न होने देने, लोगों को डराने, उन्हें स्वार्थी बनाने, विरोध की भी सामुहिकता को तोड ने और धन-सम्पदा के प्रति खतरनाक आसक्ति बढ ाने जैसे षड यंत्रो प्रमुखता से दिखाई देते हैं।
आज दुनियाभर में आया आर्थिक संकट भी इसी षड़यंत्र का अन्तर्राष्ट्रीयकरण है। सदियों तक धर्म और शिक्षा इन षड यंत्रों के सामने डट कर खड ी रहती आई है। परन्तु अब यह रास्ता भी बंद होता दिख रहा है क्योंकि स्वार्थी तत्वों ने सबसे पहले इन संस्थाओं में ही इन षड यंत्रों को सफल बनाया।
जब ये संस्थाएं रीड -विहीन बन गई तब इनका बाकी का काम अधिक आसान हो गया। विगत ५० वर्षों में धर्म तथा शिक्षा संस्थानों के आगे बदलाव क्या इस बात के प्रमाण नहीं हैं? मजे की बात यह भी है कि ये षड यंत्र अपने घर-परिवार, मित्र-मंडली और आस-पास के वातावरण में इस प्रकार घुल-मिल गये हैं कि हमें असली खलनायक दिखाई ही नहीं देते।
क्या आपको समय-समय पर अपने काम से काम रखो, जमाने के हिसाब से चलो, क्या हरीश्चन्द्र की औलाद हो, दुनिया की नहीं, अपनी सोचो, एडजेस्ट करके चलो जैसी सलाह नही मिल रही।
ये सलाहें आपको कौन दे रहा है? क्या ये सलाहें आपको डराने और स्वार्थी बनाने में सहज तर्क उपलब्ध नहीं कराती? जरा सोचिये, इसकी जगह यदि आपको गलत के सामने डर कर खडे होने की सलाह मिले तो आपकी हिम्मत बढ ेगी, आपका विश्वास मजबूत होगा।
पर होता ठीक उल्टा है। ऐसे सद्प्रयत्नों को न केवल अकेला छोड ने का षड यंत्र होता है बल्कि उसे कमजोर करने का भी हर सम्भव प्रयत्न होता है और इसके पीछे वे ही स्वार्थी तत्व होते है जो व्यवस्था को लूटने के अवसरों पर कब्जा जमाये होते है। फिर चाहे वे तत्व राजनीति में हो चाहे प्रशासन में और चाहे सामाजिक संस्थाओं में, इन तत्वों का मूल लक्ष्य होता है, सूचनाओं और तथ्यों को छुपाना।
अगर वे उजागर हो ही जाये तो लोगों को डराना, उन्हें अपने स्वार्थ याद दिलाना, उन्हें बंदरबाट में हिस्सेदारी देना और किसी भी प्रकार से विरोध को सामुहिकता में तब्दील न होने देने का होता है।
यह प्रक्रिया वैसे तो लम्बें समय से चली आ रही है परन्तु वह क्षण शायद ईश्वर की नियामत ही था जब राजनीतिज्ञों को देश में सूचना का अधिकार लागू करने की सद्बुद्धि आयी।
यह व्यवस्था क्रांतिकारी होगी ऐसा शायद इसे लागू करने वाले ने भी नहीं सोचा होगा। हो सकता है कि वे आज पछता रहे होंगे क्योंकि इसकी भावना में डाले जा रहे अवरोध यही सिद्ध करते है। कि मीडिया की स्वतंत्रता भी ऐसे ही सुखद क्षणों का हिस्सा है परन्तु उसमें भी विज्ञापनी चासनी का लोभ काम कर रहा है।
अब यदि इन षड़ यंत्रों के असर की बात की जाए तो सबसे बड ा बदलाव यह दिखता है कि आज गलत काम करने वाला, खुले आम भ्रष्टाचार करने वाला और व्यवस्था को चूना लगाने वाला बेहद बेखौफ है।
अपने काले धन की ताकत पर बड ा भरोसा है। उन्हें किसी सामुहिक विद्रोह की आशंका कतई दिखाई नहीं देती है। स्विस बैंक की वर्ष २००८ की रिपोर्ट का यह खुलासा कि भारतीयों के सर्वाधिक १८९०० खरब डालर इस बैंक में जमा है। केवल विदेशो में काले धन का यह आकार क्या सिद्ध करता है ?
किसी राजनैतिक पार्टी के एजेडे के यह मुद्दा नहीं है और यदि इन शब्दों का प्रयोग होता भी है तो केवल सत्ता पक्ष पर आक्षेप लगाने के लिये ही अधिक होता है। यह सब एक मुर्दा समाज को गठने के उन षढयंत्रों के सफल होने का परिणाम ही तो है जिनके चलते मुठ्ठी भर स्वार्थी तत्व सफल हो रहे हैं।
अंत में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये कि इन षड ्यंत्रों के खिलाफ हमारी क्या व्यूह रचना होनी चाहिये? वैसे तो यह काम स्वाधीनता संग्राम से भी अधिक जटिल है क्योंकि व्यवस्था के दुश्मन गहरे पैठ गये है परन्तु परिवर्तन का आगाज होना ही चाहिए।
होता है और इसके पीछे वे ही स्वार्थी तत्व होते है जो व्यवस्था को लूटने के अवसरों पर कब्जा जमाये होते है। फिर चाहे वे तत्व राजनीति में हो चाहे प्रशासन में और चाहे सामाजिक संस्थाओं में, इन तत्वों का मूल लक्ष्य होता है, सूचनाओं और तथ्यों को छुपाना।
अगर वे उजागर हो ही जाये तो लोगों को डराना, उन्हें अपने स्वार्थ याद दिलाना, उन्हें बंदरबाट में हिस्सेदारी देना और किसी भी प्रकार से विरोध को सामुहिकता में तब्दील न होने देने का होता है।
देश के कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने जनता को जागरूक करने के लिए जो जन आन्दोलन चालू किया है वह स्वागत योग्य है। इसका स्वरूप यदि ÷÷मतदाता सूचना फोरम'' जैसा हो तो जनता को लोक जीवन से जुड़ी अधिकतम सूचनाएं मिलेगी। बाकी काम स्वतः हो जायेगा क्योंकि लगातार सही सूचनाएं मिलने पर जनता जागृत होगी और उन लोगों पर निशाना साधेंगी जो सत्ता और अधिकारों से लबरेज होकर अपनी स्वार्थ सिद्धी कर रहे हैं। लोक जीवन में शुचिता के पक्षधर अण्णा हजारे इसी विचार के पक्षधर है।
भारतीय राजनीति का यह कर्मकांड मात्र चेहरे बदल रहा है, परिस्थितियाँ नहीं। हॉलाकि कभी चुनाव आयोग तो कभी न्यायपालिका की सक्रियता से सुधार की चिंगारी में फूँक अवश्य पड ती है पर राजनैतिक स्वार्थों का अंधड उसे परिवर्तन की आग नहीं बनने देता।
इस माहौल के चलते १०० करोड से अधिक की हमारी लोक-शक्ति एक मुर्दा समाज की तरह व्यवहार करती दिखने लगी है। आँखों के सामने गलत होते देख अंधी, गूँगी और बहरी बनती इस लोकशक्ति को हर तरह से मूर्ख बनाया जाना सहज हो रहा है। क्या यह एक सुनियोजित षढयंत्र नहीं है कि हम सब चुप रहने को समझदारी समझने लगे हैं।
याद कीजिये, देश में आपातकाल के बाद कोई जन आंदोलन पैदा नहीं हुआ जबकि इस काल में राष्ट्रीय हितों की लगातार गंभीर उपेक्षा हुई। क्या आज हम उन षड यंत्रों के प्रति जागरूक हैं जो राष्ट्र की चेतना को धीमा जहर देकर नष्ट कर रहे हैं? चुनाव-दर-चुनाव मतदाता की बढ ती समझदारी की अनुकूलता के बीच इस मुद्दे पर भी आज विचार होना चाहिये।
लोक शक्ति को कुंद करने में स्वतंत्रता के बाद सफल हुए इन षड यंत्रों पर यदि विचार किया जाए तो उनमें सूचनाएं न होने देने, लोगों को डराने, उन्हें स्वार्थी बनाने, विरोध की भी सामुहिकता को तोड ने और धन-सम्पदा के प्रति खतरनाक आसक्ति बढ ाने जैसे षड यंत्रो प्रमुखता से दिखाई देते हैं।
आज दुनियाभर में आया आर्थिक संकट भी इसी षड़यंत्र का अन्तर्राष्ट्रीयकरण है। सदियों तक धर्म और शिक्षा इन षड यंत्रों के सामने डट कर खड ी रहती आई है। परन्तु अब यह रास्ता भी बंद होता दिख रहा है क्योंकि स्वार्थी तत्वों ने सबसे पहले इन संस्थाओं में ही इन षड यंत्रों को सफल बनाया।
जब ये संस्थाएं रीड -विहीन बन गई तब इनका बाकी का काम अधिक आसान हो गया। विगत ५० वर्षों में धर्म तथा शिक्षा संस्थानों के आगे बदलाव क्या इस बात के प्रमाण नहीं हैं? मजे की बात यह भी है कि ये षड यंत्र अपने घर-परिवार, मित्र-मंडली और आस-पास के वातावरण में इस प्रकार घुल-मिल गये हैं कि हमें असली खलनायक दिखाई ही नहीं देते।
क्या आपको समय-समय पर अपने काम से काम रखो, जमाने के हिसाब से चलो, क्या हरीश्चन्द्र की औलाद हो, दुनिया की नहीं, अपनी सोचो, एडजेस्ट करके चलो जैसी सलाह नही मिल रही।
ये सलाहें आपको कौन दे रहा है? क्या ये सलाहें आपको डराने और स्वार्थी बनाने में सहज तर्क उपलब्ध नहीं कराती? जरा सोचिये, इसकी जगह यदि आपको गलत के सामने डर कर खडे होने की सलाह मिले तो आपकी हिम्मत बढ ेगी, आपका विश्वास मजबूत होगा।
पर होता ठीक उल्टा है। ऐसे सद्प्रयत्नों को न केवल अकेला छोड ने का षड यंत्र होता है बल्कि उसे कमजोर करने का भी हर सम्भव प्रयत्न होता है और इसके पीछे वे ही स्वार्थी तत्व होते है जो व्यवस्था को लूटने के अवसरों पर कब्जा जमाये होते है। फिर चाहे वे तत्व राजनीति में हो चाहे प्रशासन में और चाहे सामाजिक संस्थाओं में, इन तत्वों का मूल लक्ष्य होता है, सूचनाओं और तथ्यों को छुपाना।
अगर वे उजागर हो ही जाये तो लोगों को डराना, उन्हें अपने स्वार्थ याद दिलाना, उन्हें बंदरबाट में हिस्सेदारी देना और किसी भी प्रकार से विरोध को सामुहिकता में तब्दील न होने देने का होता है।
यह प्रक्रिया वैसे तो लम्बें समय से चली आ रही है परन्तु वह क्षण शायद ईश्वर की नियामत ही था जब राजनीतिज्ञों को देश में सूचना का अधिकार लागू करने की सद्बुद्धि आयी।
यह व्यवस्था क्रांतिकारी होगी ऐसा शायद इसे लागू करने वाले ने भी नहीं सोचा होगा। हो सकता है कि वे आज पछता रहे होंगे क्योंकि इसकी भावना में डाले जा रहे अवरोध यही सिद्ध करते है। कि मीडिया की स्वतंत्रता भी ऐसे ही सुखद क्षणों का हिस्सा है परन्तु उसमें भी विज्ञापनी चासनी का लोभ काम कर रहा है।
अब यदि इन षड़ यंत्रों के असर की बात की जाए तो सबसे बड ा बदलाव यह दिखता है कि आज गलत काम करने वाला, खुले आम भ्रष्टाचार करने वाला और व्यवस्था को चूना लगाने वाला बेहद बेखौफ है।
अपने काले धन की ताकत पर बड ा भरोसा है। उन्हें किसी सामुहिक विद्रोह की आशंका कतई दिखाई नहीं देती है। स्विस बैंक की वर्ष २००८ की रिपोर्ट का यह खुलासा कि भारतीयों के सर्वाधिक १८९०० खरब डालर इस बैंक में जमा है। केवल विदेशो में काले धन का यह आकार क्या सिद्ध करता है ?
किसी राजनैतिक पार्टी के एजेडे के यह मुद्दा नहीं है और यदि इन शब्दों का प्रयोग होता भी है तो केवल सत्ता पक्ष पर आक्षेप लगाने के लिये ही अधिक होता है। यह सब एक मुर्दा समाज को गठने के उन षढयंत्रों के सफल होने का परिणाम ही तो है जिनके चलते मुठ्ठी भर स्वार्थी तत्व सफल हो रहे हैं।
अंत में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये कि इन षड ्यंत्रों के खिलाफ हमारी क्या व्यूह रचना होनी चाहिये? वैसे तो यह काम स्वाधीनता संग्राम से भी अधिक जटिल है क्योंकि व्यवस्था के दुश्मन गहरे पैठ गये है परन्तु परिवर्तन का आगाज होना ही चाहिए।
होता है और इसके पीछे वे ही स्वार्थी तत्व होते है जो व्यवस्था को लूटने के अवसरों पर कब्जा जमाये होते है। फिर चाहे वे तत्व राजनीति में हो चाहे प्रशासन में और चाहे सामाजिक संस्थाओं में, इन तत्वों का मूल लक्ष्य होता है, सूचनाओं और तथ्यों को छुपाना।
अगर वे उजागर हो ही जाये तो लोगों को डराना, उन्हें अपने स्वार्थ याद दिलाना, उन्हें बंदरबाट में हिस्सेदारी देना और किसी भी प्रकार से विरोध को सामुहिकता में तब्दील न होने देने का होता है।
देश के कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने जनता को जागरूक करने के लिए जो जन आन्दोलन चालू किया है वह स्वागत योग्य है। इसका स्वरूप यदि ÷÷मतदाता सूचना फोरम'' जैसा हो तो जनता को लोक जीवन से जुड़ी अधिकतम सूचनाएं मिलेगी। बाकी काम स्वतः हो जायेगा क्योंकि लगातार सही सूचनाएं मिलने पर जनता जागृत होगी और उन लोगों पर निशाना साधेंगी जो सत्ता और अधिकारों से लबरेज होकर अपनी स्वार्थ सिद्धी कर रहे हैं। लोक जीवन में शुचिता के पक्षधर अण्णा हजारे इसी विचार के पक्षधर है।
No comments:
Post a Comment