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चुनाव मे नीलाम हुआ मीडिया

विधानसभा चुनाव के दौरान मीडिया का प्रदर्शन बेहद शर्मनाक रहा। चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। चुनाव मे चले पैकेज सिस्टम ने जहां संवेदनशील पत्रकारों को झकझकोर कर रख दिया, वहीं पाठकों को घोर निराश किया। इस नए सिस्टम पर समाज मे व्यापक बहस की जरूरत है।

विधानसभा चुनाव मे सभी प्रादेशिक समाचार पत्रों और चैनलों ने प्रत्याशियों से चुनावी खबरें छापने व दिखाने के लिए मोटी रकम वसूली। इसे चुनावी पैकेज का नाम दिया गया। प्रमुख राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों ने बड़ी-बड़ी राशि अखबारों और न्यूज चैनलों को दी। इसके ऐवज मे उन प्रत्याशियों के समर्थन मे समाचार दिए गए। उनके प्रचार, जनसंपर्क और बयान नियमित छापे गए। दूसरी ओर इनके प्रतिद्वंदी उम्मीदवारों को प्रचार में पीछे और काफी कमजोर बताया गया। वास्तविकता भले ही इसके विपरीत रही हो।
इससे हुआ यह कि क्षेत्र के पाठकों का अखबारों से भरोसा उठ गया। अखबारों के कार्यालय मे दिन भर फोन आते रहे कि हकीकत से परे खबरें क्यों छप रहीं हैं। लोगों ने चुनावी समाचार पढ़ना ही बंद कर दिया। कुछ ही दिनों मे पाठक समझ चुके थे कि यह पत्रकारिता नहीं कुछ और ही चल रहा है। इन दिनों मीडिया ने विश्वसनीयता खो दी थी। पत्रकारों की तकलीफ यह थी कि उन्हें पैकेज दे चुके अयोग्य प्रत्याशियों की तारीफ मे कसीदे पढ़ने पड़ रहे थे। वहीं दूसरी ओर सामने वाला प्रत्याशी कितना ही भला क्यों न हो उसकी खिलाफत करना उनकी ड्यूटी बन गई थी।
मीडिया की इस व्यवस्था के बाद यह संभव नहीं रहा कि कोई ईमानदार योग्य लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति मीडिया के सहारे चुनाव लड़ सके। पैकेज सिस्टम मे मीडिया सिर्फ पूंजीपतियों का ही गुणगान करती है।
हालांकि यह बात किसी से छुपी नहीं है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का दायित्व व धर्म है कि निर्वाचान के दौरान मतदाताओं का उचित मार्गदर्शन करे। अगर मीडिया मार्गदर्शन न भी कर सके तो कम से कम हालातों की वास्तविक्ता से तो जनता को अवगत कराए। लेकिन अब तो मीडिया ने अपने ही पाठकों और दर्शकों को गुमराह करना शुरू कर दिया है। यह बेहद चिंतनीय विषय है। माना कि व्यवसायिकता जरूरी है लेकिन व्यावसायिकता की आड़ में अपने कर्तव्य व धर्म को ताक पर नहीं रखा जा सकता। यह मीडिया के पतन की पराकाष्ठा है।
पैकेज सिस्टम की होड़ मे कोई भी अखबार पीछे नहीं रहा। सभी ने चुनाव की बहती गंगा मे सिर्फ हाथ ही नहीं धोए बल्कि खूब डुबकी लगाई। मीडिया की स्वंतत्रता जैसी कोई चीज नहीं बची थी। दुखद बात यह थी कि इस स्वतंत्रता पर किसी बाहरी तत्व ने हमला नहीं किया। मीडिया ने खुद को सरे आम बाजार मे नीलाम किया और नीलामी के इस तमाशे को मूक दर्शक की भांति सभी ने देखा।
चुनाव आयोग का हमेशा से प्रयास रहा है कि चुनावी फिजूलखर्ची को कम किया जाए। चुनाव को सस्ता बनाने के यथासंभव उपाय भी किए जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने राजनैतिक दलों पर आचार संहिता का भरपूर शिकंजा कसा है। ऐसे मे मीडिया ने इसमें सहायता करने की बजाए आयोग की आखों मे धूल झोंक कर बेहिसाब रूपए हथियाने का रास्ता निकाला गया। उन रूपयों की प्रत्याशी को रसीद भी नहीं दी गई। इससे यह राशि प्रत्याशी के चुनावी खर्च मे नहीं जोड़ी जा सकी। आचार संहिता के तहत यह अपराध की श्रेणी मे आता है।
कई पैकेज में यह रकम इतनी बड़ी थी कि वह प्रत्याशी के कुल खर्च की 10 से 25 फीसदी थी। इस तरह बड़ी राशि चुनाव आयोग की नजर से बचाकर खर्च की गई। इस गैर कानूनी कृत्य मे मीडिया बरारब की साझेदार रही। यह शायद पहली बार हुआ हो कि अपने फायदे के लिए मीडिया ने अपराधों मे शामिल होना स्वीकार किया हो। चुनाव आयोग को अब इस पैकेज सिस्टम पर नजर रखने के लिए नई व्यवस्था करना पड़ेगी।
अखबरों मे प्रकाशित प्रत्याशियों के विज्ञापनों को चुनावी खर्च मे शामिल किया जाता है। लेकिन समाचारों का कोई लेखा-जोखा नहीं होता, जबकि अखबारों मे इन समाचारों के ही लाखों रूपए वसूले गए। भविष्य मे शायद चुनावी खबरों को भी विज्ञापन की श्रेणी मे गिना जाए। कल्पना करें कि यदि न्यायपालिका का इसी तरह व्यवसायिकरण हो जाए तो न्याय व्यवस्था का क्या होगा। चुनाव के दिनों मे कुछ ऐसा ही अहसास पत्रकारों और पाठकों को हो रहा था। समाचार पत्रों के उद्योगपति मालिकों से निवेदन है कि ज्यादा धनोपार्जन के लिए पत्रकारिता की आत्मा को नष्ट न करें। पत्रकारिता की अस्मिता और विश्वसनीयता को जिंदा रखते हुए व्यापार करें।

संतोष गौतम, वरिष्ठ पत्रकार, सागर, मप्र

5 comments:

  1. akhbar main package system varsh 2003 ke mp assembly election main shuru ho chuka tha. Mp ke kathit sabse bade newspaper nai Impact Feature ki shakal main un khabron ko chhapa jo vigyapan ki shreni main aati hain.Had to tab dekhi jab is newspaper ney ek hi din, ek hi page par, ek hi vidhansabha shetra ke teen ummeedwaron ko jeet kee aur agrashar bataya. Tab laga ki akhbabaar Ghatnaon ka aina nahin balki us band party main tabdeel ho gaya hai jo viviah smaroh / baarat main wahi bajaata hai jo nachne wale ladke apni masti ke mood main band walon se chahten hain. Ya fir Impact feature ke naam par newspaper vaisya ke bhoomika nibha rahe hain yani rupaai do aur jo chaho so karalo. Bhai Apne lekh main bilkul satya likha hai magar Chunav aayog ko yeh sab najar kyon nahi aa raha hai?

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  2. पिंकी सलूजा, लुधियाना, पंजाब
    बहुत अच्छा लिखा है। शुभकामनाओं सहित।

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  3. प़० रामगुलाम चौबे, जीरो नंबर बस्‍ स्टेंण्ड के पास, इलाहाबाद, उप्र
    संतोष जी मीडिया शातिर व्यापारियों के हाथ मे पहुंच गई है। गुलामी के दिनों मे जिन पत्रकारों की वजह से पत्रकारिता समाज का इतना सम्मानित अंग बना उन्होने कई कई दिन के फांके लगाकर व ब्रिटिश सरकारों के प्रलोभनों को ठुकराकर व उनके जुल्मों को सहते हुए अपनी कलम की आजादी व धार पर आंच नहीं आने दी ।
    आज के शातिर व्यापारी पत्रकारिता की उस छवि को वेश्या की तरह ही इस्तेमार कर रहे हैं। अपने नुकसान का राग अलापते रहने वाले इन कथित े मीडिया मुगलों को अपने संस्थान मे काम करते उन सामर्पित पत्रकारों की तंगहाली नजर नहीं आती है जिनकों ये दिहाड़ी मजदूरों से भी कम दाम और उनसे कहीं ज्यादा काम लेते हें। आप जैसे पत्रकारों को इसी तरह खुलकर इन धंधेबाज मीडिया के पैरोकारों से जूझना पडेंगा।

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  4. Akhabaro ke lekhani ko package ne apni aagosh me le rakha hai. yah bilkul sach hai tabhi to package ke nam par patrakaro se kalam ke adhikar chhen liye aor akhabar maliko ne sapere ke been ke dhune par nachne ke liye majbor kar diya gaya hai. aise me sach kahne ka shalikha aor sahas kahan rahega.yadi akhabaro ki sakh bachank hai, kalam ke adhikar suraskhit rakhan hai to kalam ke sipahi ke sath-sath aam janta ko bhi iska virodh karna chahiye.

    Hamid khan,Sagar, Computer Center Sanchalk

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  5. मिण्टो पालीवाल दरभंगा, बिहार,
    अखबार के मालिकों ने पाठकों को बेवकूफ समझ रखा है। जैसे वो कुछ वो जानते ही नहीं हों। वो कुछ भी लिखते रहेंगें और पाइक अपने पैसा खर्च कर वह सब पढ़ता रहेगा। पैसे लेकर नकली खबरे छापने वाले अखबारों का जनता को बहिष्कार करना चाहिए। पैसा लेकर खबर बेचने वाले पैसा लेकर देश के हित को बेचने वाले किस नजरिए से कम दोषी है।

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