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विकास के लिए व्यवस्था में तालमेल जरुरी ...

पं दीनदयाल उपाध्याय भारत की महान चिंतन परंपरा के ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होने '' एकात्म मानववाद'' पर आधारित आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था बनाने का आव्हान किया था। 25 सितंबर 1916 को देश की पावन ब्रज वनस्थली के एक छोटे से गांव नजला चन्द्रभान मे जन्में पंडितजी ने राष्ट्र सेवा का संकल्प ले कर दुनिया को खुशहाल बनाने के लिए एक आदर्श समाज व्यवस्था बनाने हेतु चिंतन लगा दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचार परंपरा से जुड़ने के कारण उन्होने भारतीय संस्कृति पर आधारित एकात्म मानववाद के सिंद्धांत का प्रतिपादन किया। आज उनका संगठन और उसका राजनैतिक संस्करण अर्थात भाजपा की वर्तमान पीढ़ी उन्हें किस रूप मे याद कर रही है, यह हम सबसे छुपा नहीं हैं परन्तु एकात्म मानववाद की उनकी वैज्ञानिक व्याख्या आज के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक व्यवस्था मे अधिक उपयुक्त जान पड़ती है। विगत दो शताब्दियां पश्चिमी विचारों की उस आंधी की रही जिसमें विकास को हासिल करना ही एकमात्र लक्ष्य रहा है। यही कारण है कि उनकी अवधारणा को उपयुक्त फल नहीं मिल सका परन्तु आज की वैश्विक परिस्थितियां पंडितजी के चिंतन पर पुन: गौर करने को मजबूर कर रही हैं।
बीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्ध मे जहां समाजवाद का किला ढहा वहीं अब 21 वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में पूंजीवाद का महत्व गिरता दिखाई दे रहा है। ऐसे समय मे क्या एकात्म मानववाद के सिद्धांत के व्यवहारिक प्रयोग पर शोध नहीं होना चाहिए ?

पं दीनदयाल जी का एकात्म मानववाद मूलत? सृष्टि की एकात्मकता पर आधारित होने के साथ उसके मानवीय पक्ष पर अधिक बल देता है। ये दोनों ही तत्व भारतीय संस्कृति की पहचान है। अब तक जिन व्यवस्थाओं का व्यापक प्रचलन रहा है वे उस पश्चिमी संस्कृति पर आधारित हैं जिनमे भौतिकता सर्वोपरि है। यही कारण है कि इन में विकास के लक्ष्य और मापदण्ड भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित हैं। इसके लिए किसी न किसी रूप मे शोषण की व्यवस्थाएं खड़ीं की गईं। विगत दो शताब्दियों मे हुए सभी परिवर्तनों मे शोषण के तरीकों में बदलाव भले ही हुआ हो, लेकिन मूल समस्या लगातार बढ़ती रही है। स्वयं ही संपदा बढ़ाने के लिए आज व्यक्ति, संस्था एवं पर्यावरण सभी की लूट को जायज ठहराने के लिए नई-नई व्यवस्थाएं खड़ीं की जा रही है और अब वे बेकाबू भी हो रही हैं। ऐसे विषम हालातों का पूर्वाभास्‍ा होने की वजह से ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा को पेश किया जिसके द्वारा सही मायनों मे टिकाऊ विकास हासिल किया जा सकता है।
पंडितजी ने अपने एकात्म मानववाद मे समाज मे व्याप्त समस्याओं का तार्किक विशलेषण किया है। '' अर्थ का अभाव एवं अर्थ का प्रभाव'' के माध्यम से उन्होने दुनियां की सारी समस्याओं को अनुठे अंदाज में समेट दिया। उनके अनुसार सारी समस्याएं या तो धन की कमी के कारण हैं या धनी की अधिकता के कारण। इसलिए उन्होने जो आदर्श व्यवस्था दी उसका लक्ष्य हर लिहाज से संतुलनकारी व्यवस्था बनाने का था। इसके लिए उन्होने साध्य-साधन विवेक तथा आर्थिक स्वातंत्र्य की ऐसी व्यवस्था बनाने का आग्रह किया जो भारतीय द्वारा दिए गए चार पुरूषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सामन्जस्य से निर्मित हो। उनके अनुसार ऐसी व्यवस्था ही आदर्श हो सकती है जिसमें एकात्मकता होती है। आज का सारा संकट विरोधाभासी लक्ष्यों का है। इसके निर्दोष समाधान के लिए ही पं दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का विचार रखा जिसे व्यवहार मे लाने हेतु आवश्यक कदम उठाने का समय अब आ गया है। उनके उत्तराधिकारियों का ध्यान उनकी जयंती मनाने के अतिरिक्त क्या उनके विचारों को अमल मे लाने का प्रयास करने का भी है।
डॉ० जीएल पुणताम्बेकर, रीडर, वाणिज्य विभाग , डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर

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