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बाबु को टीप लेखक से फाइल कीपर बनने की तैयारी ....

सरकारी महकमें में पत्रों, आवेदनों तथा शिकायतों के लिये प्रत्येक स्तर पर फाईल आगे बढ़वाने, सही टीप लिखवाने तथा अन्तिम निराकरण तक पहुचाने में जो मशक्कत करनी पडती है, वह किसी से छुपी नही है। सरकारी अमले की मौजूदा कार्यप्रणाली में बाबू की भूमिका एक ''स्टार्टर'' की हो गई और पिछले : दशकों में इस कौम ने अपने काम को गति देने के लिये भ्रष्टाचार के एक्सीलेटर को ऐसा मजबूत किया कि प्रशासन तथा राजनीति की गाड़ी इसी से दौडने लगी। कानून की किताबों में ''लोक सेवक'' के नाम से पहचाने जाने वाली इस ''लोक चूसक'' जमात ने सरकारी प्रक्रियाओं का ऐसा जाल बुना कि उसमे उलझने के स्थान पर लोगों को तथाकथित ''सुविधा शुल्क'' देना अधिक सहज लगने लगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ जो छोटी-मोटी जंग लडी भी जाती है उन्हें यह उलझाव भरी प्रक्रिया बेअसर बना देती है। इस प्रक्रिया में बदलाव की पहल प्रदेश के मंत्रालय में पत्रों के निपटाने की प्रक्रिया को नया जामा पहनाकर की जा रही है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस पहल की प्राथमिक सफलता भले ही प्रक्रियात्मक बदलाव है, परन्तु स्थाई सफलता तो कर्मचारियों की मानसिकता बदलकर ही मिलेगी, जो असंभव नही तो कठिन अवश्य है।

अब यदि मंत्रालय के इस प्रयोग पर गौर किया जाय तो इसमें पत्रों को लिपिक के स्तर से प्रारंभ होकर विभिन्न अधिकारियों की टीप के साथ उच्च स्तर पर पहुॅचने की वर्तमान प्रक्रिया को समाप्त कर नई प्रक्रिया अपनाने का विचार हुआ है। इसमें सभी पत्रों का निपटारा अपर या उपसचिव तथा प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में बनी दो समितियों की सामूहिक बैठक में किया जाना तय हुआ है। इसमें प्रकरण की नस्ती पर केवल एक ही अंतिम टीप से निराकरण्ा करने की प्रक्रिया बनाई गई है। निर्णय पर समिति के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर से सर्वसम्मति से निर्णय होने के साथ ही फाईल पर अनावश्यक अभिमत लेने तथा पूछताछ करने में होने वाले विलम्व से बचने का निर्णय लिया गया है। इस नई व्यवस्था में बाबू की भूमिका केवल प्रक्रिया के रिकार्ड रखने तक सीमित कर दी गई है और उसके टीप लिखने पर भी रोक लगा दी गई है। प्रकरणों के निराकरण में समय की बचत के साथ निर्णयों में एकरूपता तथा सामन्जस्य बैठाने की दृष्टि से यह पहल अभिनव लगती हैं परन्तु इस नई व्यवस्था की भावना के अनुरूप सफलता पाने के लिए यह आवश्यक है कि कुछ जरूरी सावधानियाँ भी रखी जाए अन्यथा इस प्रयोग के असफल होने का खतरा हो सकता है।
मंत्रालय के इस नये प्रयोग की पहली चुनौती यह कि प्रशासनिक व्यवस्था में जुडे बहुत से अधिकारी तो निर्णय लेने के लिए अपने मातहतों पर इतने अधिक आश्रित होते है कि वे स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकेंगे, इसमें संदेह है। इसका दूसरा संकट यह है कि मौजूदा व्यवस्था में निचले स्तर से आई हुई टीप के आधार पर निर्णय लेने पर अधिकारी को अपने बचाव का सबसे सरल मार्ग मिलता है जिसे छोडना आसान नही होगा। फिर वर्तमान व्यवस्था में भ्रष्टाचार के जिस मजबूत गठबंधन का विस्तार हुआ है, उसे ध्वंस्त करना भी कम चुनौतीपूर्ण नही है। इसके अतिरिक्त आम जनता की समस्या का निराकरण कर सही अर्थो में लोक सेवक की भूमिका निबाहने की मानसिकता पैदा करना तो ऐसी चुनौती है जिसके लिए किसी चुम्बकीय व्यक्तित्व वाले प्रशासनिक नेतृत्व की आवश्यकता है। क्या नई व्यवस्था के प्रणेताओं ने इन पर विचार किया है ?
नई व्यवस्था की उक्त चुनौतियों के बाद भी यह पहल इसलिए स्वागत योग्य है क्योंकि प्रत्येक बदलाव के प्रारंभिक स्तर पर कठिनाईयाँ आना बेहद स्वाभाविक है। आज जैसे-जैसे जनता जागरूक हो रही है वैसे-वैसे राजनीति तथा प्रशासन दोनो को प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करना आवश्यकता ही नहीं, मजबूरी भी बनता जा रहा है। प्रदेश की सरकार जब अपने कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के साथ कर्मचारी कल्याण विविध स्तरों पर सौगाते दे रही है तब उसकी यह अपेक्षा बडी स्वाभाविक है कि प्रशासनिक अमले में ऐसी कार्य संस्कृति निर्मित हो जिससे जनप्रतिनिधियों को जनता के सामने जाने में असुविधा न हो। नई व्यवस्था यदि इस उद्देश्य में सफल होती है तो यह प्रदेश के लिए एक बडी उपलब्धि होगी और इस व्यवस्था का विस्तार प्रदेश भर में किया जाना चाहिए।
डाँ. जी.एल. पुणताम्बेकर
रीडर वाणिज्य विभाग, डाँ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर

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