राजनैतिक पार्टियों के नाम आज भले ही विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हुए लगें लेकिन ऐसा अब नहीं है। विचारधारा के भूत से मुक्त होते ही भारतीय राजनीति का जो नजारा हम देख रहे हैं वह बडा खतरनाक है। ऐसा क्यों हुआ, कैसे यह मजबूत हुआ और कैसे इससे मुक्ति हो सकती है यह बडा महत्वपूर्ण है। जहां तक विचारधारा को छोडने की बात है तो यह सिलसिला कमोबेश सभी पार्टियों में पनपा और राजनीति को सेवा से पेशा मानने के कारण खूब फला-फूला। मैकाले के बाद देश की शिक्षा व्यवस्था को रोजगार से जोडने पर ही जोर देकर न केवल नाकारा बनाया बल्कि युवा वर्ग को ऐसा भटकाया की राजनीति बेवकूफी हो गई। अब कांग्रेस को गांधी विचार से, बीजेपी को दीनदयाल उपाध्याय के एकात्मवाद से तो समाजवादियों को लोहिया से क्या सरोकार है? एक विचित्र वैचारिक दीवालियापन राजनीति में छा गया है और चुंकि राजनीति ही सब कुछ तय करती है इसीलिए समाज भी उसी ओर चल पडा है। अब किससे आशा करें सब मौन हैं बिलकुल मुर्दों के समान। भला मुर्दों की भी कोई विचारधारा होती है। समाज और देश जिंदा लोगों से अपनी पहचान बनाता है। आजादी ऐसे ही जिन्दा लोगों का कर्मफल था। ऐसा फिर होगा पर तभी जब एक और गांधी या जय प्रकाश आएगा।
जीएस पुणतांबेकर, रीडर वाणिज्य विभाग, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मप्र
जीएस पुणतांबेकर, रीडर वाणिज्य विभाग, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मप्र
No comments:
Post a Comment