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विदेशों से काला धन देश में लाने से सरकारों की छवि सुधरेगी

भ्रष्‍टाचार और कर चोरी से उपजे काले धन के दैत्य के सामने असहाय लग रही सरकार आत्मरक्षा में ''काले धन को सफेद'' करने की योजना प्रस्तुत करने की तैयारी कर रही है। सूत्रों के अनुसार केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड विदेशों में जमा उस काले धन पर कर अदा करने के बाद उसे भारत लाने की योजना बनाने में जुटा है।
यदि ऐसी कोई योजना को राजनैतिक स्वीकृति मिलती है और वह आगामी बजट का हिस्सा बनती है तो यह केन्द्र की यूपीए सरकार की भ्रष्‍ट-समर्थक छवि से उबरने के एक उपाय के रूप में देखी जाएगी। राजनैतिक हलको में ऐसा सोचना बेमानी भी नहीं है क्योंकि वे किसी मुद्‌दे को राद्गट्रीय समस्या के रूप में न लेकर उसे केवल अपनी पार्टी के राजनैतिक संकट के रूप में ही देखते है।
इसलिए यदि सरकार परिस्थितिजन्य मजबूरियों के चलते ''सॉप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे'' की तर्ज पर यदि नई योजना लाती है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह बात अलग है कि इस बार का संकट कुछ भिन्न किस्म का है और सुप्रीम कोर्ट, देच्च के प्रतिद्गिठत व्यक्तियों और विपक्ष के साथ आम जनता सरकार की हर कार्यवाही की व्यापक पड़ताल करेगी। मीडिया तो हर घटना के हर पल को हर संभव भुनाने के लिए तैयार ही है। अतः काले धन के संदर्भ में यदि हताच्च और समझौतावादी कार्यवाही की कोई योजना बनती भी है तो उसकी मजबूरियों तथा दुष्‍परिणामों की समीक्षा की जानी चाहिए।
    भ्रष्‍टाचार और काले धन के दैत्य से संग्राम करते समय सबसे पहले तो उसकी मूल प्रकृति पर विचार किया जाना चाहिए। सरकार इस मर्ज के इलाज का जो प्रस्ताव बना रही है उसके पिछले अनुभव उत्साहवर्धक नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही सरकार ने काले धन को सफेद करने के लिए अनेक रियायते दी परन्तु इससे काले धन हासिल करने वालो में आवच्च्यक डर पैदा होने के स्थान पर नया विच्च्वास पैदा किया। यह विच्च्वास कानून को ढेगा बताकर लाभ उठाने और उससे हासिल ताकत के दम पर माफी पाने का होता है। यही कारण है कि आज तक ऐसी योजनाओं से जितना काला धन सफेद हुआ उससे कई गुना अधिक पैदा हो गया। यदि आंकड ो पर गौर करे तो हम पायेंगे कि सन्‌ १९४६-१९४७ में आयकर जांच आयोग की कार्यवाही से अघोद्गिात आय ३० करोड  रूपयें क
वसूल हुआ। इसके बाद सन्‌ १९५१ में स्वैच्छिक प्रकटीकरण योजना से केवल १०.८९ करोड़, सन्‌ १९६५ में ३०.८ करोड , सन्‌ १९६६ में १९.४५ करोड  तथा सन्‌ १९७६ में आय तथा संपत्ति कर से २४६.७० करोड  रूपयें कर वसूल हुआ। सन्‌ १९८१ में सरकार ने विच्चेद्गा धारक बांड योजना निकाली जिससे १६० करोड , सन्‌ १९८५ में ऐसी ही योजना से ३८८ करोड  रूपयें और सन्‌ १९९१ में ९८४ करोड  रूपयें का कर राजस्व प्राप्त हुआ। सन्‌ १९९७ में पुनः स्वैच्छिक आय प्रकटीकरण योजना लागू की। जिससे सर्वाधिक १०१०० करोड  रूपयें का कर राजस्व प्राप्त हुआ। अब यदि सरकार ऐसी कोई योजना लाती है तो स्विस बैंक के ७० लाख करोड  रूपयें, फ्रांस सरकार द्वारा दी गई जानकारी जिसका सरकार खुलासा करना नहीं चाहती है उससे तथा देच्च में छुपे काले धन से कितना कर राजस्व प्राप्त होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है।
    सरकार के ऐसे प्रस्ताव के पूर्व अनुभवों से जो बात स्पष्‍ट है वह यह कि कर चोरों को दिए गए मौके को उन्होने सरकार की मजबूरी मना और अधिक तेजी से इन अवैध गतिविधियों में जुट गये। आज सरकारी की मजबूरी का स्वरूप जितना दयनीय है वह ऐसे ही लोगों की ताकत का परिणाम है। 
आज सरकार सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी जनता के सामने राष्‍ट्र को लुटने वालों के नाम उजागर करने को तैयार नहीं है, कॉमनवेल्थ घौटाले में पकडे गये लोगों की जमानत होना चालू हो गई है। सरकार के मंत्री २ जी स्पेक्ट्रम घौटाले से ही इनकार कर रहे है। यह सब काले धन की ताकत का कमाल है। 
ऐसे समय यदि सरकार ने काले धन को जमा करने वालो को केवल कर चुकाकर माफी देने की यदि योजना बनाई तो जिस स्रोत से यह काला धन एकत्रित किया गया है उसे सरकार जायज ठहरायेंगी। कानूनी रूप से सरकार को ऐसा अधिकार हो सकता है परन्तु क्या नैतिक आधार पर आम जनता की गाढी कमाई की लूट को माफ करने का सरकार को अधिकार है। 
सरकार उनसे ३० प्रतिच्चत कर वसूल कर दौसो सत्तर प्रतिशत भाग उन्हें कैसे दे सकती है फिर उस राष्‍ट्रद्रोह की क्या सजा होगी जिसमें देश के तमाम कानूनों का उल्लघंन कर यह काला धन एकत्रित किया गया है। इससे भी बढ़कर क्या वह आने वाली पीढी को किसी भी तरह का अपराध कर बचने की मिसाल पेच्च नहीं कर रहीं है ? सरकार की ऐसी कोई भी प्रस्तावित योजना को इन्ही मापदण्डो पर परखा जाना चाहिए।
जीएल पुणतांबेकर

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