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ई'संस्क़ति के शिखर पर दुनिया

ऐसा प्रतीत होता है आज दुनियॉं ''ई-संस्कृति'' के शिखर पर है।  विद्गव के अधिकांद्गा लोगों पर यह संस्कृति हावी होती जा रही है, जिसे आज की दुनियॉं में हल्की-फुल्की बातचीत कहा जाता है।  यह भारी तादात में बच्चों से लेकर प्रोढ़ वर्ग के लोगों में अपना विशेष स्थान बनाये हुए है।  

जिसे देखों वह या तो ई-मेल करने में व्यस्त है अथवा ई-मेल प्राप्त करने में या मोबाइल से बात करने में या मोबाइल काल सुनने में।  कभी-कभी तो ऐसे द़श्य उपस्थित होते हैं कि बामुश्‍िकल पॉंच फुट की दूरी पर खडे व्यक्ति मोबाइल से एक-दूसरे से चर्चारत्‌ हैं।   
इस हल्की-फुल्की बातचीत जो अब हल्की-फुल्की न रहकर भारी और अधिक समय लेने वाली होती जा रही है, पर समय रहते रोक नहीं लगी तो हम पर मॅंडरा रहे अदृश्‍य खतरे को रोकना मुश्‍िकल है।  तेजी से अपने पैर पसारती ई-मेल की दुनियॉं जिसमें तार-बेतार एवं उपग्रह से ऐसा व्यवस्था स्थापित की गई है कि क्षण भर में करोडों सन्देद्गा, आदेद्गा, विनति और आपराधिक कृत्य (साइबर क्राईम) और अनसोचा न जाने क्या-क्या विद्गव में एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया जा रहा है।  
सचमुच दुनियॉं सिकुडी हुई मुट्‌ठी में प्रतीत होती है।  ई-मेल, टि्‌वटर, फेसबुक, ब्लाग, एसएमएस, एमएमएस और न जाने क्या-क्या आने वाले समय में पूरी तीव्रता के साथ एक छोटी स्क्रीन पर उभरेंगे।  पिछले वर्च्च के ऑंकडे बताते हैं कि दुनियॉं में हर रोज कोई २६० अरब ई-मेल किए गए थे।  
लगभग ६ अरब आबादी वाले विद्गव में पिछले वर्च्च प्रतिदिन २६० अरब सन्देद्गाों का ऑंकडा प्राप्त होता है।  इस वर्च्च इन ऑंकडे की क्या स्थिति है वह तो ई-मेल और अन्य सन्देद्गा माध्यमों के उपयोग से सहज ही जाना जा सकता है।  
(ऑंकडे गांधी मार्ग २०१० से साभार) पृथ्वी के चारों ओर डिजीटल सूचनाओं का ढेर हर सेकेण्ड चक्कर काट रहा है।  यह कह सकते हैं कि हम इतने सस्ते में इतना बड ा काम कर रहे हैं, किन्तु यह आधा सच है।  हम पूरी दुनियॉं के साथ एक बहुत मॅंहगा खेल खेल रहे हैं।  प्रकृति ने मनुच्च्य की आवद्गयकता सम्बन्धी समस्त वस्तुएॅं प्रचुरता से प्रदान की हैं, मनुच्च्य सहित।
मनुच्च्य भी उसी प्रकृति का वैसा ही अंग है जैसे जल, वायु, अग्नि और अन्य तत्त्व।  अन्य प्रकृति प्रदत्त तत्त्व प्राकृतिक वातावरण के साथ छेड़छाड  कर उसे असन्तुलित नहीं करते या ऐसा करने में वे सक्षम नहीं हैं।   केवल मनुच्च्य अपने स्वार्थों के लिए विवेकी होते हुए भी अविवेकी कृत्य करता है। 
विकास उतना ही ठीक है जितना आवद्गयक है।  यह कहा जा सकता है कि आवश्याकतांए अनन्त हैं।  यदि इस बात को स्वीकार लिया जावे तब भी उन आवद्गयकताओं की पूर्ति हेतु द्याोध और उसके परिणामस्वरूप चमत्कृत करने वाले आविच्च्कार नियंत्रित तो अवद्गय होना चाहिए।
         भविष्य द़ष्टा गांधीजी ने यह भॉंप लिया था कि अंधाधुंध आविष्कार से प्राप्त उपकरण और मशीनों न केवल मानव को गुलाम बना रही हैं अपितु स्वयं मनुच्च्य के रोजगार निगल कर उन्हें जीवन-यापन को भी मोहताज करेगी।  इसलिए गांधीजी ने मद्गाीनों का विरोध किया।  'ई' संस्कृति ने जिस तेजी से विकास किया और आज निम्न से लेकर उच्च वर्ग की वह आवद्गयकता बन गई है।  
निश्‍िचत ही हर आविच्च्कार से मानवता को जहॉं एक ओर लाभ पहुंचाता है वहीं दूसरी ओर उसकी हानियॉं भी हैं।  दूरभाच्च, सेलफोन, कम्प्यूटर, ई-मेल के माध्यम से जहॉं दूरियॉं कम हुई हैं वहीं मानव श्रम और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन यथा - कागज के लिये वृक्षों की कटाई में कमी, नदियों के प्रदूषण वायु प्रदूषण में कमी हुई है।  
किन्तु ई-मेल, दूरभाष, टी.व्ही., कम्प्यूटर से जो अदृद्गय विकिरण का प्रदूच्चण बढा है, वह उपरोक्त प्रदूच्चण से कमतर और हानिकारक नहीं है।  अदृश्‍य चुम्बकीय तरंगें हर क्षण हमारे मनोचिकित्सक को प्रभावित करती हैं और हम अनजाने में ही अनेक विकारों, सन्तापों के शिकार हो जाते हैं, यथा - मानसिक तनाव तथा उससे उत्पन्न ऐसी समस्याएं जिनका समाधान फिलहाल विज्ञान में भी नहीं है।
प्रद्गन यह है कि क्या हमें इन विकसित साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए?  समाधानस्वरूप यह कहा जा सकता है कि किसी भी चीज का अनियंत्रित उपयोग सदैव हानिकारक होता है चाहे वह कागज हो या इलेक्ट्रानिक उपकरण।  क्योंकि इनके निर्माण में प्रयुक्त प्रकृति प्रदत्त कच्चे माल की कमी आ जाती है और उसके लगातार अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है और फिर नई तकनीक उसका स्थान लेने के लिये विकसित की जाती है।  यह उन्नत तकनीक पूर्व तकनीक से अधिक परिष्कृत हो होती है किन्तु दुष्प्रभाव विहीन नहीं।  विकास के साथ कदम मिलाकर चलना भी आवश्‍यक है।  प्रतिस्पर्धा के चलते एजेंसियों और उपयोगकर्त्ताओं पर अंकुद्गा भी सम्भव नहीं है।  अतः या तो वैधानिक नियंत्रण हो अथवा जागरूकता पैदा की जावे। 
यह जागरूकता किसी मशीन अथवा किसी संस्था द्वारा उत्पन्न नहीं की जा सकती, मद्गाीनों एवं आविष्कारों का उपयोग करने वाले लोगों को ही इसके दुष्परिणाम और आने वाली पीढियों को पहुंचने वाले नुकसान का आकलन कर निर्णय लेना होगा कि वे आने वाली पीढियों को कैसा भविच्च्य देना चाहते हैं व स्वयं कैसे वर्तमान में जीवन-यापन करना चाहते हैं, तभी मर्यादित प्रयोग सम्भव होगा, अन्यथा दुच्च्परिणाम भोगने के लिए हर पीढी आविष्कारों से शापित रहेंगीं। 

  

        (डॉ० अखिलेश्‍वर प्रसाद दुबे)
        प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
        दर्शनशास्त्र विभाग,
        डॉ० हरीसिंह गौर केन्द्रीय विद्गवविद्यालय,
        सागर (म.प्र.)

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