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मानस में भक्ति का स्वरूप

डॉ० अखिलेश्वर  प्रसाद दुबे,
 प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,दर्शन -विभाग,डॉ० हरीसिंह गौर केन्द्रीय विद्गवविद्यालय,  सागर ,मप्र 

भारतवर्ष में समाज साधना, धर्म साधना और साहित्य साधना का इतिहास अति प्राचीन है। यहॉं ऋषि-मुनियों नीति नेताओं से लेकर कवियों तक, सभी ने गार्हस्थ जीवन को विशेष महत्त्व प्रदान किया है। इसका कारण यह है कि अन्य आश्रमों का यह आधार है। अन्य देशों  में भी गार्हस्थ जीवन महत्त्वपूर्ण है, किन्तु उसका संघटन वैसा नहीं है जैसा भारत में है। भारतवर्ष ने गार्हस्थ जीवन की गृह साधना को केवल लौकिक या भौतिक नहीं रखा। उसमें लोकोत्तर साधना की भी व्यवस्था रखी।

यह व्यवस्था सोपानल पद्धति थी। प्रवृत्ति मार्ग की सीमा पर पहुॅंच कर स्वयंमेव निवृत्ति मार्ग पर पहुंचने की व्यवस्था परिलक्षित होती है। ब्रह्‌म की निर्गुण साधना पर ही दृष्टि रखने से निवृत्ति मार्ग का सर्वाधिक आकर्च्चण हो जाता है, इतना अधिक कि प्रवृत्ति मार्ग के परित्यागपूर्वक उसकी साधना में लगने की सलाह दी जाने लगती है। भारतीय भक्ति मार्ग प्रवृत्ति लक्षण है, किन्तु निवृत्ति उसमें स्वाभाविक रूप से आ जाती है। कारण यह है कि सगुण ब्रह्‌म का उपासक कालान्तर में स्वयं ही जागतिक आकर्च्चण से विमुख हो जाता है।

भारत में मोक्ष के तीन साधन हैं - ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और भक्ति मार्ग। यहॉं ज्ञान और भक्ति का या कर्म और भक्ति का इस अर्थ में विरोध है कि ज्ञान और कर्म की साधना कठोर है और भक्ति की साधना सरल है। भक्ति का अनुयायी यह कभी नहीं कहता कि ज्ञान और कर्म के मार्ग कोई मार्ग ही नहीं है। भक्ति मार्ग ने गृहस्थ भक्तों के लिए गार्हस्थ जीवन के मध्य हॅंसता-खेलता (सगुण) भगवान्‌ का रूप सामने ला दिया।
व्यक्ति को गृहस्थ रहते हुए भक्ति की चरम साधना का अधिकार प्राप्त हो गया। अन्य भक्ति सम्प्रदायों में जैसी भी व्यवस्था हो, किन्तु तुलसीदास ने प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य भक्ति का, राम भक्ति का, स्वरूप माना है। महात्मा बुद्ध के अनन्तर स्पच्च्ट रूप से मध्यम मार्ग की घोषणा इन्हीं की वाणी में सुनाई देती है। राम भक्ति में घर (प्रवृत्ति) और वन (निवृत्ति), गृहस्थ और सन्यास दोनों आश्रमों का समन्वय है।
भक्ति सबके लिये अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे विद्गव में अन्न, जल और वायु सबके लिए अनिवार्य है। अन्य पदार्थों की अपेक्षा समाज में जीवन के लिए आवद्गयक तत्त्व सुलभ और सस्ते होना चाहिए जिससे समाज का अन्तिम व्यक्ति भी उसे प्राप्त कर सके। 'भक्ति' के सम्बन्ध में तुलसीदास की यही मान्यता है।
भक्ति सर्वसुलभ होनी चाहिए ताकि समाज के हर वर्ग और हैसियत का व्यक्ति उसे प्राप्त कर सके। अर्थात्‌ भक्ति का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का है। वह वर्गविद्गोष तक सीमित नहीं है। सर्वग्राह्‌यता तुलसीदास की भक्ति की सबसे बड़ी विद्गोच्चता है। जहॉं यह साधारण विधा बुद्धि धारित व्यक्ति के लिए अपेक्षित है वहीं ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति के लिए भी अपेक्षित है।

भक्ति के सन्दर्भ में यदि मनुच्च्य स्वभाव का विद्गलेषण किया जावे, तब यह स्पच्च्ट होता है कि मनुष्य के अन्तःकरण के दो पक्ष हैं - एक बुद्धि पक्ष या ज्ञान पक्ष, द्वितीय भाव पक्ष या हृदय पक्ष। ज्ञान के अन्तिम सोपान पर पहुॅंचा व्यक्ति भी हृदय की भावात्मक परिच्च्कृति के बिना पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता। इसके ठीक विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि हृदय की भावात्मक पराकाष्ठा को पहुॅंचा हुआ व्यक्ति ज्ञान की उच्चता को प्राप्त किये बिना पूर्ण नहीं हो सकता। उल्लेखनीय और विचारणीय यह है कि ज्ञान की उच्चता प्राप्त करना सबके लिये सम्भव नहीं है, किन्तु भाव की उच्चता सभी प्राप्त कर सकते हैं।
सर्वग्राह्‌यता से तुलसीदासजी का तात्पर्य भक्ति के इसी विद्गिाष्ट स्वरूप से है। इस बात को उन्होंने मानस के सप्तम्‌ सोपान में 'ज्ञानदीपक' और 'भक्तिमणि' के रूपक द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है। भक्ति की साधना सरल और ज्ञान की साधना कठिन है। ज्ञान साधना का एक बुरा पक्ष यह है कि ज्ञान के सर्वोच्च द्गिाखर पर पहुॅंचकर भी ज्ञानी जगत्‌ के राग में आकर्षित हो पतन को प्राप्त हो सकता है।

ज्ञान का साध्य मोक्ष है। मोक्ष से प्राप्त होने वाला आनन्द ज्ञान का विच्चय न होकर भाव या हृदय का विच्चय है, इसलिए मोक्ष से प्राप्त आनन्द की अनुभूति भावात्मक साधना के द्वारा ही सम्भव है। अतः भक्ति की साधना में मोक्ष का आनन्द भी सम्मिलित है। जगत्‌ के विषयों से विरक्ति या मुक्ति भक्ति साधना के द्वारा स्वयंमेव हो जाती है। तुलसीदास प्रणीत भक्ति में समन्वयकृति भी है।
प्राचीनकाल से साधना के तीन पक्ष हैं - ज्ञान, कर्म और उपासना। इनमें से प्रत्येक मार्ग की साधना स्वतन्त्र रूप से होती है और प्रत्येक मार्ग का स्वतन्त्र रूप अंकित करते हुए केवल उसी मार्ग को सर्वप्रधान घोच्चित किया जाता है। यहॉं तक कहा जाता है कि अन्य मार्गों की कोई आवद्गयकता नहीं है। किन्तु तुलसीदासकृत भक्ति के स्वरूप में ज्ञान और कर्म को अप्रधान निरूपित करते हुए भी उनकी ऐकान्तिक उपेक्षा नहीं की गई है।

तुलसीदास भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म की उच्चता नहीं स्वीकार करते। यद्यपि ज्ञान और कर्म के सम्बन्ध में उनकी विपरीत मति नहीं है। भक्ति की साधना में वे सेवकसेव्यभाव को ही सर्वोपरि मानते हैं -

सेवकसेव्यभाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।

इसका वास्तविक कारण यह है कि तुलसीदास भक्ति में दैन्य को मुखय समझते हैं। अन्य भावों की साधना में अहं का लोप नहीं हो पाता किन्तु दास्यभाव (भक्ति) की साधना में अहं का त्याग सर्वप्रथम करना होता है। सम्भवतः इसलिए सेवकसेव्य भाव तुलसी की दृच्च्िट में श्रेष्ठ है। दोहावली में तुलसीदास ने भक्ति की विधि अत्यधिक स्पष्ट वर्णित की है। भक्ति का मार्ग सदाचार का मार्ग है। वाणी संयम और मनःसंयम इसके लिए आवद्गयक है। ये दोनों संयम तभी हो सकते हैं जब भगवत्प्रेम या भक्ति हो।

प्रीति राम सों नीतिपथ चलिय रामरस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति॥
भक्ति को महात्माओं ने भी श्रेष्ठ मानते हुए कहा है, इसके बिना ज्ञान की सिद्धि नहीं होती।

तुलसीदासजी ने सर्वाधिक मनीषा रामचरितमानस के द्वितीय सोपान के प्रणयन में लगाई है। रामचरित मानस के प्रथम सोपान में गुरू की वन्दना कर लेने के पश्चात्‌ द्वितीय सोपान में पुनः गुरू की वन्दना उन्होंने की। इसका कारण यह है कि अन्य सोपानों में श्रोता-वक्ता तुलसीदास के अतिरिक्त अन्य संतजन भी हैं। किन्तु इस द्वितीय सोपान में स्वयं तुलसीदास वक्ता और संतजन श्रोता हैं। मानस के तीन स्थल कठिन माने गए हैं -
बाल आदि औ उत्तर अंत। मध्य अजोध्या बूझहिं संत।
अर्थात्‌ बालकाण्ड का प्रारम्भिक अंद्गा जिसमे नाममाहात्म्य, भगवद्‌भक्ति आदि का विवेचन किया गया है जो अतिकठिन है। उत्तरकाण्ड का वह अंद्गा जिसमें भक्ति ज्ञान और माया का विवेचन किया गया है - अत्यधिक कठिन है एवं अयोध्याकाण्ड में जहॉं भरत की भक्ति और आचरण का वर्णन है, वह अंद्गा सर्वाधिक कठिन है।
यहा कहा जावे तो अतिद्गायोक्ति नहीं होगी कि अयोध्याकाण्ड रामचरितमानस के अन्तर्गत एक प्रकार से भरतचरित का काण्ड है। क्योंकि श्रीराम के द्याील का अंकन तो सभी काण्डों में किया गया है, किन्तु राम के अनुरूप भक्ति की साधना का उत्कृष्ठ स्वरूप केवल भरत में ही दिखलाई देता है। यदि भक्ति की दृष्टि से देखा जावे तो भरतचरित परम भक्ति का चरित है। मनुच्च्य के तीन रूप अन्तःकरण और बहिःकरण के भेद से हो जाया करते हैं।
प्रथम भेद वह है जिसमें व्यक्ति के अन्तःकरण में कुछ हो और बाह्‌य आचरण में कुछ और ऐसे व्यक्ति 'उत्तम' नहीं माने जाते। बेर और बादाम की भॉंति उनके बाह्‌य और अभ्यंतर में विरोधाभास होता है। द्वितीय वे हैं जो बाहर और अन्दर से अंगूर के समान एक से हों, वे 'उत्तम हैं' भरत इसी श्रेणी में हैं। भरत भक्त द्गिारोमणि हैं, निम्नलिखित चौपाई से यह प्रमाणित होता है -

भगतसिरोमनि भरत तें जिनि हरपहुं सुरपाल।

राम के महत्‌ स्वरूप के अनुकूल भक्त का रूप अंकित करने के जिये गोस्वामीजी ने भरत के उच्च चरित की कल्पना की है। राम के प्रति भरत की भक्ति दास्यभाव की है -

सिर भरि जाऊॅं उचित अस मोरा। सबतें सेवकधरम कठोरा।

यह दास्यभाव उन्होंने राम को अपना बड़ा मानकर किया है।

प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरज्ञानी।
सरल सुसाहिब सीलनिधानू। प्रनतपालु सर्वग्य सुजानू।

जहॉं एक ओर भक्ति का दास्यभाव निरूपित किया गया है वहीं दूसरी ओर उपरोक्त पंक्तियों से जो भावार्थ प्रकट होता है, वह परलौकिक सम्बन्ध के कारण भरत का राम के प्रति पूज्यभाव बड े भाई के प्रति होने वाला पूज्यभाव है। इस कारण से ही भरतभक्ति, भायपभक्ति कहलाती है --

भायपगति भरत आचरनू। मंगलमूल अमंगलहवनू।
तृतीय रूप भरत की भक्तिसाधना का सर्वोत्कृच्च्ट स्वरूप है, जिसमें परित्याग की भावना निहित है। जो सब प्रकार का त्याग करने के लिए उद्यत हो उसे कोई किसी प्रकार पराभूत नहीं कर सकता। भक्ति का इससे श्रेच्च्ठ उदाहरण क्या होगा कि भरत ने पिता के द्वारा प्रदत्त राज्य का परित्याग किया। भरत ने जिस प्रकार का कठोर व्रत लिया वह उन्हीं के अनुरूप था। उनके चरित्र में यह विद्गोच्चता है कि उसके मनन से मनन करने वाला भी जगत्‌ रस के आकर्षण का परित्याग कर भक्ति रस में निमग्न हो जाय -

भरतचरित करि नेमु, तुलसी जो सादर सुनहि।
सियरामपदमेमु, अवसि होइ भवरसविरति॥

भरत के इस अनुकरणीय आचरण का परिणाम है कि राम के पक्ष में गौरव होते हुए भी जनता ने भरत के पक्ष को गौरवान्वित कर रखा है। इसका परिणाम है कि 'राममनावन' और 'राममिलाप' को संज्ञीत न कर 'भरतमनावन' और 'भरतमिलाप' को महिमामण्डित किया गया।

यह कहना आसान है कि भक्ति मार्ग अन्य मार्गों से सुगम है किन्तु उसकी साधना द्याील की पराकाष्ठा तक पहुॅचाती है और उस पराकाच्च्ठा तक पहुॅंचना सरल नहीं है। भक्ति की कला में निपुणता प्राप्त कर लेने पर ही साधन सरल हो सकता है। उदाहरणार्थ, जल प्रवाह में मछली तो प्रतिकूल प्रवाह में भी चली जाती है किन्तु हाथी उसमें बह जाता है। 
ऐसे ही चींटी बालू में मिली हुई द्याक्कर को भी सरलता से पृथक्‌ कर लेती है जो अन्य किसी के लिये आसान नहीं है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि तुलसीदास की यह अटल मान्यता है कि भक्ति के बिना किसी प्रकार भवबंधन से मुक्ति नहीं मिल सकती। ज्ञान और भक्ति में अन्तर यह है कि यह ज्ञान हो जाने पर भी कि जगत्‌ मिथ्या है। जगत्‌ से छुटकारा नहीं मिलता। 

ज्ञान के द्वारा जो उपलब्धि होती है वह जब तक अनुभूति में परिणत नहीं होगी तब तक संसार का बंधन घट नहीं सकता, ठीक वैसे ही जैसे ज्ञान हो जाने पर कि घट में अंधकार है। इस ज्ञान से कि दीपक जलाने से अंधकार दूर हो जाता है, कमरे में प्रकाद्गा नहीं हो जाता। अंधकार तभी दूर होगा जब दीपक जलाया जावेगा। भगवद्‌भक्ति से अन्तःकरण निर्मल हो जाता है जो अंधकाररूपी अज्ञान मिटाने में सहायक होता है।

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