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भ्रष्टाचार पर हो निर्णायक प्रहार

भ्रष्टाचार के मुद्‌दे पर जिस निर्लज्जता और लाचारी का नजारा कॉमनवेल्थ गेम, आदर्श सोसायटी और २जी स्पेक्ट्रम घोटालों में देखने को मिल रहा है, वह ओबामा की अभूतपूर्व प्रशंसा के संदर्भ में एक चिंतनीय विरोधाभास है। जब वैश्विक आर्थिक संकट में भारत मजबूती से डटा रहा और दुनिया हमें एक बड़ी और विकसित आर्थिक शक्ति मान रही है, तो यह पड ताल करना आवश्यक है कि इस सत्य के पीछे कितना हाथ कुशल उद्यमिता और सार्वजनिक क्षेत्र का है और कितना हमारे कालेधन की मजबूत अर्थव्यवस्था का है। 
 
वास्तव में, जिस विकास प्रतिमान के लिए ओबामा हमें मजबूत सहयोगी बनाने का आश्वासन दे गए, उससे भी कहीं अधिक तीव्र गति से हम भ्रष्टाचार में विकास कर रहे हैं। इसका बड ा प्रमाण यह है कि ६४ करोड  रूपये के बोफोर्स कांड के दो दशकों के बाद आज ७० हजार करोड  का कॉमनवेल्थ गेम और १ लाख ७७ हजार करोड  रूपये का २जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो जाता है। मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य संचालक योगीराज के घर पहले जब १०० करोड  मिले थे और अब जोशी दम्पती के यहाँ ३०० करोड  रूपये की बेहिसाबी सम्पत्ती मिली है। 
यह कितना खतरनाक विकास है। स्विस बैंक में भारतीयों के जमा ७० लाख करोड  रूपयों के काले धन का तो मसला ही अलग है। क्या ८-९ प्रतिशत की विकास दर पाने पर छाती फुलाने वाले हमारे कर्णधारों ने क्या कभी इस भ्रष्टाचारी लूट की विकास दर का अनुमान लगाया है? 
आज यदि देश के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग ३ प्रतिशत और राजकोषीय घाटे के ५० प्रतिशत वाला अकेला २जी स्पेक्ट्रम कांड और उस पर केंद्रीय संचार मंत्री ए. राजा का पद पर बने रहने का दम-खम, यह सब कुछ यदि हमारी चेतना को झकझोरने वाला नहीं है, तो मानिये हमारी चेतना ही मर गई है और आज उसमें जान फूँकने की ही आवश्यकता है।
भ्रष्टाचार के मामले में केवल आम आदमी ही निराश-हताश नहीं है बल्कि सुप्रीम कोर्ट को भी विगत दिनों तंत्र की अव्यवस्था एवं भ्रष्टाचार के मामले में गैर-परंपरागत टिप्पणी करने को मजबूर किया था। जो लोग अनाज सड़ने के बजाय गरीबों को बाँटने और शार्कों और मगरमच्छों को छोड कर भ्रष्टाचार के छोटे मामलों के प्रति सरकारी तंत्र की गंभीरता के लिए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को कानून के दायरे से बाहर की टिप्पणी मानते हैं, वे मूलतः कानूनी दांव-पेंचों से बचने वाले वही भ्रष्टाचारी हैं जिन्हें भय है कि कहीं ऐसी टिप्पणियों से जनता में वह आक्रोश पैदा न हो जाए जो लगभग ८० वर्ष पहले अंग्रेजों के खिलाफ पैदा हुआ था। 
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कानून के शीर्ष विशेषज्ञों के द्वारा नंगी आंखों से देखा वह सच था, जिसकी परिस्थितियों ने ही शायद न्यायधीशों की भाषा को गैर-पारम्परिक बनाने को मजबूर किया होगा। ये सभी परिस्थितियाँ एकीकृत रूप से किसी निर्णायक पहल की ओर आगे बढ ने का विचार प्रस्तुत करने और उस पर चिंतन करने का आग्रह करती है।
    भ्रष्टाचार के मुद्‌दे पर यह बात लगभग स्वीकार्य है कि इसका विस्तार इतना व्यापक है जो इसके खिलाफ जंग में हार को सुनिश्चित सा करता है। यह भी सच है कि राजनैतिक संरक्षण और थका देने वाली न्यायालयीन प्रक्रिया ईमानदारी को नहीं, भष्टाचारियों को ही मजबूत कर रही है। 
फिर, सभी जाँच एजेन्सियाँ सरकारी नियंत्रण में होने से भ्रष्ट तंत्र को अतिरिक्त खाद-बीज भी मिलता है। परन्तु ये सभी परिस्थितियाँ न तो नई हैं और न ही हम इनसे अनजान और इसलिए मात्र संकटों का रोना रोने के स्थान पर उन संभावित प्रहारों पर विचार करना अधिक कारगर हो सकता है, जो आज के समय की सबसे बडी माँग है।
भ्रष्टाचार के ब्रम्ह-राक्षस के विरूद्ध जंग का आगाज करने के पूर्व यह जानना सबसे अहम है कि उनकी जड़ें कहाँ हैं और उसमें मट्‌ठा कैसे डाला जाए। इस संबंध में तमाम निराशाजनक खबरों और राजनीतिज्ञों की कारगुजारियों के बीच सूचना का अधिकार कानून, व्हिसिल ब्लोअर बिल और मध्य प्रदेश के लोक सेवा गारंटी कानून सुकून देने वाले हैं क्योंकि इन कानूनों ने जनता को भ्रष्टाचार से लड ने का अस्त्र मुहैया कराये हैं। 
इसी की अगली कड ी में जो दो प्रयत्न हुए वे अभी अधूरे हैं। ये नई प्रत्यक्ष कर संहिता और वस्तु एवं सेवा कर (जी.एस.टी.) व्यवस्था है। वस्तुतः इन कानूनों का स्वरूप तथा क्रियान्वयन का तंत्र ही ऐसा होना चाहिए, जिससे काला धन पैदा ही न हो और भ्रष्टाचारी के बचने की गुंजाईश न्यूनतम हो। 
अभी प्रस्तावित नई व्यवस्थाओं में यद्यपि ये विशेषताएं नहीं हैं और कमोवेश वे पुरानी व्यवस्था का अंग ही हैं, जो कर चोरी और भ्रष्टाचार को पुष्ट कर रही हैं। इस व्यवस्था में चारों ओर फैले मजबूत लाभार्थी ही विजय केलकर समिति की अनुशंसाओं, जिसमें सभी छूटों और रियायतों को समाप्त करने की शिफारिश थी, को नई व्यवस्था में शामिल न होने देने का दबाव बनाने हुए हैं। परिणामतः तमाम छूटों के दुरूपयोग तथा बेहिसाबी आय के जरिये बडी मात्रा में काला धन जमा हो रहा है। 
यही काला धन बाजर में रियल इस्टेट, आटोमोबाईल और व्यापार-व्यवसाय में विनियोजित होकर हमारा जीडीपी भले ही बढ ाता है परन्तु वह एक ऐसा कानून सम्मत विकास पैदा नहीं करता जिसके लिए ओबामा हमें फुला गए हैं। तब  बड ा सवाल यह है कि भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार कैसे हो?
भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जंग के अनेक रास्ते हो सकते हैं, परंतु वर्ष २००५ में ऑल इण्डिया कॉमर्स ऐसोसिएसन के उदयपुर अधिवेशन में औरंगाबाद के एक छोटे उद्यमी श्री अनिल बोकिल ने 'ट्रांजेक्शन टेक्स' नाम से एक वैकल्पिक कर-व्यवस्था प्रस्तुत की थी और उनका दावा था कि इस व्यवस्था में कालेधन से मुक्त ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है जिसमें १० प्रतिशत के अधिकतम एवं एकमात्र कर से केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय निकायों की आय १० गुना तक बढ़ाई जा सकती है और वह भी बिना बजट घाटे के। इसके लिए उन्होंने देश को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में दो हजार से ऊपर के लेनदेन को नकदी में न कर सकने की एवं इस पर एकमात्र न्यूनतम कर लगाने की व्यवस्था लागू करने का सुझाव दिया था। 
उन्होंने नई व्यवस्था के लिए ५० रूपये से बडे सभी नोटों को तत्काल बंद कर २,००० रू. से अधिक के लेन-देन को बैंकों के माध्यम से ही करने की व्यवस्था बनाने का सुझाव दिया जिससे कर चोरी और काला धन भी समाप्त होगा और सरकार को लोक-कल्याण के लिए पर्याप्त धन मिलेगा। इसी के साथ वर्तमान काले-धन को निकालने के लिए एक पूर्णतः स्ततंत्र एजेन्सी बने जिसकी कार्यवाही का सीधा प्रसारण होना चाहिए। 
इस कार्यवाही में बेहिसाबी राशियाँ/संपत्तियाँ तत्काल जब्त होकर, सरकारी खजाने में जमा होनी चाहिए जिनका तत्काल बजटीय उपयोग हो। दोषी व्यक्ति यदि चाहे तो अपने दावे के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है परंतु अपनी संपदा को कानून सम्मत सिद्ध करने की जवाबदारी उसी की होनी चाहिए। यह व्यवस्था भ्रष्टाचारियों में भय पैदा करेगी तथा गैर-कानूनी आय के स्थान पर कानून सम्मत लाभ कमाने की प्रेरणा भी पैदा करेगी।
आज जब देश डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी तथा प्रणव मुखर्जी को राजनीति की काजल की कोठरी में बेदाग मानता है तब उन्हें ए. राजा को बचाने या कलमाड़ी-चव्हाण को हटाने से आगे जाकर राष्ट्रहित में बडे निर्णय लेने की पहल करनी चाहिए।
उन्हें यह विश्वास भी होना चाहिए कि ऐसा करने से यदि करूणानिधि सफल होकर उनकी सरकार भी गिरा देते हैं, तो जनता उन्हें सिर आँखों पर बैठाने और करूणानिधि को धूल चटाने में देर नहीं करेगी। जनता का काम बाद का है। पहल मनमोहन सिंह को करनी होगी।

डॉ. जी.एल. पुणताम्बेकर
ऐसोसिएट प्रोफेसर, वाणिज्य विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर

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