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महंगाई तथा महंगाई की दर का विरोधाभास

महंगाई तथा महंगाई की दर का विरोधाभास आज पूरी नग्नता के साथ हमारे सामने उपस्थित हुआ है। इस दर के बढ़ने और घटने दोनों पर उपभोक्ता त्रस्त रहा और सरकार हलाकान। पिछले वर्ष अगस्त में जब मुद्रास्फीति की दर 13 प्रतिशत के स्तर को छू रही थी, तब भी सरकार की परेशानी पर बल पड़ रहे थे और जब यह धराशयी होकर विगत 32 वर्षो का रिकार्ड तोड़कर 1.81 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर गई, तब भी सरकार मंदी के भय से गहरी चिंता में है।

हालांकि सरकार यह नहीं मान रही और उसके सामने बड़ी चिंता शक्कर, दालें तथा तेल जैसी जरूरी वस्तुओं के दाम बढ़ने से उपभोक्ता की परेशानी की है। यह विचित्र विरोधाभास नहीं तो क्या है कि एक ओर महंगाई की दर घट रही है और दूसरी ओर उपभोक्ता को कोई राहत नहीं मिल रही है। इन परस्पर विरोधी परिस्थितियों में अपनी मौद्रिक नीति तथा दूसरे उपायों की उठा-पटक से सरकार जो कुछ कर रही है, राहत कम, हवा में डंडा घुमाना अधिक लग रहा है।
रिजर्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव कह रहे हैं कि महंगाई की दर में इस गिरावट को केवल सांख्यकीय महत्व है। यदि यह सच है तो यह सांख्यकी के प्रति अब तक के अविश्वासों का एक नया पहलू है। शून्य से भी नीचे आई महंगाई की दर के बाद भी आम जनता को अपनी दैनिक जरूरतों के लिए लगातार अधिक पैसा खर्च करना पड़ रहा है तो क्या यह साबित नहीं करता है कि हमारी अर्थिक नीतियों को निर्धारित वाले सांकेतक बड़े संशोधन की मांग करते हैं। महंगाई की दर के इस विरोधाभास को समझने के लिए पहले महंगाई की दर मापने की वर्तमान व्यवस्था को समझना आवश्यक है।
मुद्रास्फीति अर्थात महंगाई की दर को मापने की दो विधियां चलन में हैं, जो थोक मूल्य सूचकांक तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के रूप से जानी जाती है। थोक मूल्य सूचकांक निर्धारित वस्तुओं (भारत में 437 वस्तुओं) के समूहों के थोक बाजार के मूल्यों का औसत है, जबकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक उपभोक्ता द्वारा उपभोग की गई निश्चित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य का औसत है।
भारत में मुद्रास्फीति की दर थोक मूल्य सूचकांक से साप्ताहिक आधार पर निकाली जाती है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, केनेडा तथा चीन आदि देशों में इसके लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का सहारा लिया जाता है। भारत में भी अनेक अर्थशास्त्री उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को अपनाने के पक्षधर हैं, क्योंकि यह अंतिम उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए मूल्य में वृद्धि को प्रदर्शित करता है।
परंतु सरकार का तर्क है कि देश में औद्योगिक श्रमिकों, शहरी क्षेत्र के कर्मचारियों, कृषि तथा ग्रामीण श्रमिकों के लिए चार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक चलन में है, जिसके चलते इस आधार पर मुद्रास्फीति का मापन नई समस्याएं पैदा करेगा। यह तर्क कुछ हद तक सही हो सकता है, परंतु वर्तमान व्यवस्था में यदि यह दर 13 प्रतिशत से घटकर शून्य से नीचे आने के बाद भी उपभोक्ताओं को महंगाई से राहत न मिल रही हो तो क्या ऐसे संकेतकों में संशोधन अपरिहार्य नहीं हो जाता? निश्चय ही यह आवश्यक है।
अब प्रश्न यह है कि मुद्रास्फीति की दर उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले वास्तविक भार का प्रतिनिधित्व क्यों नहीं करती? इसके बीच की खाई इतनी गहरी क्यों है? इस खाई का एक कारण तो इसकी गणना विधि में ही विद्यमान है। जिन 435 वस्तुओं के थोक मूल्यों के आधार पर इस दर की गणना की जाती है, उसे तीन भागों में बांटकर अलग-अलग भार दिया जाता है।
इनमें प्राथमिक वस्तुओं को 22।03 प्रतिशत, ईधन, शक्ति, विद्युत तथा लुब्रीकेंट वस्तुओं को 14।23 प्रतिशत तथा तीसरे भाग में निर्मित वस्तुएं शामिल की जाती हैं, जिन्हें सर्वाधिक 63.74 प्रतिशत भार मिला हुआ है। इन तीनों भागों में शामिल वस्तुओं के भी अपने-अपने भार हैं।
अब यदि अधिक भार वाली वस्तुओं के दाम थोड़े से भी बढ़े तो वह स्फीति को अधिक बढ़ा देते हैं और कम भार वाली वस्तुओं के दाम अधिक बढ़ने पर भी यदि अधिक भार वाली वस्तुओं के दाम कम हो जाते हैं तो औसत वृद्धि नकारात्मक हो जाती है। इसके अतिरिक्त महंगाई की दर वास्तविक महंगाई में अंतर का एक कारण यह भी है कि इस सूचकांक में शामिल 435 में से 100 से अधिक वस्तुएं आज उपभोग की दृष्टि से चलन में नहीं हैं, जो दर को अनावश्यक रूप से प्रभावित करती हैं।
इस गणना में भी 1993-94 वर्ष की थोक श्रृंखला को आधार बनाया जा रहा है, जो अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। यद्यपि सरकार इसे बदलकर 2003-04 करने तथा 435 के स्थान पर 980 वस्तुएं शामिल करने की कवायद कर रही है, परंतु इसके बाद भी ये उपभोक्ता की जेब पर पड़ने वाले वास्तविक दबाव का प्रतिनिधित्व करेगा, इसमें संदेह है। मुद्रास्फीति की दर उपभोक्ता पर पड़ने वाली महंगाई की मार का सही प्रतिनिधित्व करे, इसके लिए अब नए सिरे से विचार होना चाहिए।
एक विकल्प यह हो सकता है कि हम अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत के अनुरूप आवश्यक, आरामदायक और विलासिता की उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की सूची बनाकर उनके फुटकर मूल्यों को शामिल करते हुए एक नए सूचकांक को विकसित करना चाहिए, जिसमें आवश्यक वस्तुओं के लिए सर्वाधिक भार दिया जाए।
यह सूचकांक इस प्रकार बनाया जाना चाहिए कि इसका पहला भाग गरीब वर्ग पर, दूसरा भाग मध्यम वर्ग पर और तीसरा भाग उच्च मध्यम एवं उच्च वर्ग पर महंगाई के असर का आंकलन कर सके। ऐसा होने पर न केवल मौद्रिक नीति, वरन राजकोषीय नीति के साथ वस्तुओं के उत्पादन और वितरण नीति को भी समेकित रूप से निर्धारित किया जा सकेगा।
केंद्र में बनी नई सरकार को मिला जनादेश विकास की नई इबारत लिखे, इसके लिए परंपरागत आर्थिक संकेतकों में आवश्यक बदलावों की पहल होनी चाहिए। क्या नई यूपीए सरकार की आर्थिक ब्रिगेड ऐसा कर सकेगी?

डॉ। जी. एल. पुणतांबेकर रीडर, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर

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