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अच्छा है आइडिया का आइडिया

विज्ञापन की दुनिया पिछले कुछ समय से हमारे सामाजिक आर्थिक तानेबाने से दूर होती नजर रही है। ''विज्ञापन''उपभोक्ताओं को उत्पाद की सूचना देने जैसी परम्परागत उद्देश्य से भटककर कब ग्लैमर, अतिरंजना और अंग प्रदर्शन जैसे फरेबी काम में लग गया, यह हमें ठीक-ठीक याद भी नहीं है। किसी खास कम्पनी के अण्डर गारमेन्टस पहनकर गुण्डों से अपनी प्रेमिका को बचाने, खास ब्राण्ड की शराब पीकर बिना देखे निशाना लगाने या फिर किसी शीतल पेय को पीने वाला ही सिर उठाकर जीने वाला है, ऐसा ही कुछ प्रदर्शित करने वाले ढेरों विज्ञापन हम रोज देख रहे है।

इन विज्ञापनों की सार्थकता के गिरते स्तर ने ही हमें टी.व्ही. देखते समय हमारे हाथ में रिमोट एक आवश्यक वस्तु बन गया और हमारी चैनल बदलने की आवृत्ति बढ़ती जा रही है। विज्ञापनों का अर्थशास्त्र तो इतना मजबूत हो गया है कि पेप्सी-कोला में कीटनाशक की खतरनाक मात्रा के सच को झुटलाने सारी ताकते लग गई। यह ताकत व्यक्तियों को ही नहीं, सरकारों तक को खरीदनें की शक्ति और माद्दा रखती है। ऐसे माहौल में अगर कुछ विज्ञापन साफ-सुथरे और हमारे सामाजिक सरोकारों को समर्प‍ित लगे तो क्या यह निराशा की धुंध में एक सुकून देने वाली रोशनी नहीं है ? क्या आप आइडिया के विज्ञापन देख रहे है ? हॉ, इनमें कुछ ऐसा ही अहसास हो रहा है।
गौर फरमाईयें केदारनाथ के मंदिर की घंटी दादी माँ को सुनाने का विज्ञापन। जरा रूकियें शिक्षा के प्रसार के लिये टेली शिक्षा के विचार पर। खेतों में मॉल, नदी पर पुल और पॉलीथीन बैग पर पाबंदी के निर्णय में जनता की आवाज को राजनैतिज्ञों पर भारी दिखाने के विचार को विज्ञापनी दुनिया में डालने का आइडिया का आइडिया क्या मात्र विज्ञापन है ? यह तो विज्ञापन के साथ-साथ मिशन भी लगता है और ऐसा ही तो हर उस वर्ग से अपेक्षा भी है जिसमें निजी हित के साथ-साथ सार्वजनिक हितों का संरक्षण और संवर्द्धन होता रहे। यदि इन विज्ञापनों की कड़ी जोडी जाए तो यह धर्म से चलकर विभिन्न सामाजिक -आर्थिक विषयों पर जनता की इच्छा को महत्व देने के साथ-साथ अंत में लोकतंत्र को दिशा देती हुई लगती है।
यहाँ यह साफ करना जरूरी है कि यह आइडिया की तारीफ में पढ़ा गया कसीदा भी नही है। यह तो इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि अर्थशास्त्र भी साफ सुथरा और उद्देश्य पूर्ण हो सकता है। यही नहीं ऐसा होने पर उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ती है बालीवुड की हाल की कई फिल्में भी इसी बात को साबित करती है। कुछ लोगों का यह भी विचार हो सकता है कि आइडिया के विज्ञापनों में नवीनता भले ही हो, वह सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित ही हो, यह आवश्यक नहीं है। यदि यह सच भी है तो भी तमाम खराब झूठों को देखने की आदी हमारी ऑंखों को आइडिया के हालिया विज्ञापनों ने जो सुकून दिया है वह कोई बड़ा बदलाव भले ही न ला सके, नजरिया तो बदला ही। यह भी क्या कम है ? हम तो कहेगें
मकसद भले ही आज मुगालतें लगे
ये भी दुनिया बदल सकते है।
उन हकीकतों को तो दूर ही फेंकियें
जो मकसदों के मुगालते मिटा रहीं है।
डॉ। जी.एल. पुणताम्बेकर, रीडर, वाणिज्य विभाग, डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर

1 comment:

  1. Jaswant Arora,Nehru Place, New Delhi
    Aapka idea bhi to gajab ka hai. Bahut accha mudda uthaya hai.Congratulation Keeep It up.

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