अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी के संक्रमण से बचाने के लिये एक माह के अंतर से जो दूसरा प्रोत्साहन पैकेज जारी किया गया उसमें पूर्व की भांति ही मौद्रिक उपायों के साथ कुछ राजकोषीय उपायों से प्रभावित क्षेत्रों को शक्ति प्रदान करने का प्रयास किया गया है। इस बार दिसंबर के पैकेज के बाद फिक्की तथा राज्य सरकारों की मांग को देखते हुए कुछ परिवर्तन अवश्य किये गये हैं परंतु इस बार भी मौद्रिक तथा अन्य उपायों में अधिक जोर कर्ज की सुलभता तथा तरलता को ही दिया गया है।
प्रसिध्द अर्थशास्त्री कीन्स के सिध्दांत के अनुसार मंदीकाल में सरकारी खजाने से व्यय बढ़ाने के उपाय का जो भाग इन राहत पैकेजों में है, उसका असर कैसा पड़ेगा यह तो सरकारी व्यय करने की भारतीय व्यवस्था पर निर्भर है जो किसी से छिपी नहीं है। इसलिए एक महीने के अंतर से घोषित किये गये इन उपायों की समीक्षा करते समय उन दीर्घावधि उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिये जो संकट की दशा में अर्थव्यवस्था को मजबूती से बचाये रखने में अधिक सहायक होते हैं।
जहां तक हाल में घोषित उपायों की बात है तो इसमें रिजर्व बैंक ने रेपो रेट (रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को उधार देने की दर) तथा रिवर्स रेपो रेट (बैंक द्वारा रिजर्व बैंक में जमा धन पर प्राप्त ब्याज की दर) में एक-एक प्रतिशत की कटौती कर उसे क्रमश: 5.5 प्रतिशत एवं 4 प्रतिशत पर ला दिया है। इससे बैंकों द्वारा कर्ज की ब्याज दरें और घटाने की अपेक्षा की गई है वहीं नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) में आधा प्रतिशत की कमी कर 20000 करोड़ रूपये की नकदी उपलब्ध कराने का उपाय किया गया है।
पिछले अक्टूबर माह से ऐसी कटौतियों के माध्यम से 140000 करोड़ रूपये की उपलब्धता पहले ही कराई जा चुकी है। इसके अतिरिक्त आधारभूत ढांचा और भवन निर्माण कंपनियों के लिये विदेशों से कर्ज लेना उदार बनाया गया है तथा कारपोरेट बाण्ड में निवेश सीमा 6 अरब डालर से 15 अरब डालर भी की गई है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को 25 हजार करोड़ रूपये की अतिरिक्त नकद सहायता के साथ राज्य सरकारों को भी अपने परिव्ययों के वित्त पोषण के लिये 30 हजार करोड़ रूपये की अतिरिक्त बाजार उधारी लेने की अनुमति भी दी गई है। इस राहत पैकेज से कुछ जिन्सों जैसे स्टील, सीमेण्ट, जिंक और फेरो आयल की मांग पर भी अनुकूल असर पड़ सकता है परंतु जिस तेजी से ये उद्योग संकट में फंसे हैं इसलिए उनमें अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। यदि पिछले महीने जारी किये गये आर्थिक पैकेज की समीक्षा की जाये तो उस समय के मौद्रिक उपायों से ऋण की ब्याज दरों को कुछ हद तक घटाया गया परंतु केवल इसी कारण से ऋण लेने वालों की तादाद बढ़ गई हो, ऐसा न होना था और न हुआ ही।
इसी प्रकार सेनवैट में 4 प्रतिशत की कटौती से स्टील, सीमेण्ट और आटोमोबाइल क्षेत्र में दाम घटे परंतु इनसे उनकी मांग में वैसा इजाफा नहीं हुआ जिनसे ये कारखाने अपनी वर्तमान क्षमता पर कार्य कर सकें। नतीजतन उत्पादन स्थगित करने और छंटनी होने जैसी खबरें आती रहीं और सरकार को उसके लिये उद्योगों से आग्रह करना पड़ा।
निर्यात क्षेत्र को भी पूर्व 350 करोड़ की राहत, प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना के लिये 1400 करोड़ रूपये तथा एक्सपोर्ट क्रेडिट गारंटी के तहत ऋण के लॉकइन पीरीयड में कटौती भी निर्यात क्षेत्र को अपेक्षित राहत नहीं दे सकी क्योंकि विदेशी व्यापार का मुद्दा अभी कम कीमतों का न होकर विकसित देशों में छाई गहरी मंदी का है जिसके कारण वहां के खरीददारों की जेबे खाली हैं।
जब विश्व के जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका से और 24.7 प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय संघ के देशों से आता हो तब वहां की अर्थव्यवस्थाओं में व्याप्त मंदी के चलते निर्यात कैसे बढ़ेगा? इसी के साथ जब हमारा सबसे बड़ा प्रतिस्पर्ध्दी चीन विश्व जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा रखता हो तब हमारे उपाय ''ऊंट के मुंह में जीरा'' ही लगते हैं।
मंदी से निपटने के लिये केन्द्र तथा राज्यों के राजकोष पर यदि नजर डाली जाये तो वह भी सिकुड़ रहा है। विगत वर्ष 40 प्रतिशत की उत्साहजनक वृध्दि को अब ग्रहण लग गया लगता है। नवंबर 2008 में पिछले वर्ष की तुलना में कुल कर संग्रह में 21 प्रतिशत की गिरावट आई जिसमें से प्रत्यक्ष करों के लिये यह गिरावट 36 प्रतिशत तो अप्रत्यक्ष करों के लिये 8.3 प्रतिशत थी। इसलिए मंदी से उबरने के लिये सरकारी खजाने खोलने का विकल्प सीमित होता जा रहा है।
यद्यपि सरकार ने एफआरबीएमए एक्ट के राजकोषीय घाटे के 3 प्रतिशत के लक्ष्य को तिलांजलि देकर उसे 5 प्रतिशत तक बढ़ाने का मन बना लिया है परंतु कर संग्रह में होने वाली कमी से इसके और भी बढ़ने की आशंका है। ऐसा होने पर सरकारी कर्ज के फिर बेलगाम होने का खतरा है जो देश की अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीन सेहत के हिसाब से ठीक नहीं है।
मंदी के खिलाफ इन सरकारी उपायों की संदेहास्पद उपलब्धियों से क्या यह समझा जाये कि ये सरकारी पैकेज निष्प्रभावी हैं? नहीं, जब खुली अर्थव्यवस्था के सभी पैरोकार सरकारी सहायता और संरंक्षण की नीति पर चल पड़े हों तब हमारा ऐसी सहायता से मुंह मोड़ना कतई ठीक नहीं है परंतु इस फौरी इलाज के अलावा मर्ज का स्थायी हल करने के लिये तो बड़ा आपरेशन करना पड़ेगा।
जो मोटे निष्कर्ष इस संकट से उभरे हैं वे यह बताते हैं कि मात्र विकास दर नहीं, समावेशी विकास दर की ओर मजबूती से बढ़ना होगा। साथ ही कर्ज आधारित मांग के स्थान पर आय आधारित मांग बढ़ाने की योजनाओं पर अधिक तेजी से अमल करना होगा।
जहां तक सरकारी खर्च बढ़ाने की बात है वहां खजाने के घड़ों के छिद्रों को बंद करने की व्यवस्था यदि नहीं की जाती तो राहत पैकेज का कागजी साबित होना और काले धन को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अत: मर्ज को ठीक करने वाली दवा के लिये तो उन आर्थिक विचारकों को पुन: खंगालना होगा जो समाजवाद और पूंजीवाद की चकाचौंध में गुम हो गये हैं। देश के बुध्दिवादियों के लिये यह एक बड़ी चुनौती है।
डॉ. जी.एल.पुणताम्बेकर रीडर, वाणिज्य विभाग, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
जहां तक हाल में घोषित उपायों की बात है तो इसमें रिजर्व बैंक ने रेपो रेट (रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को उधार देने की दर) तथा रिवर्स रेपो रेट (बैंक द्वारा रिजर्व बैंक में जमा धन पर प्राप्त ब्याज की दर) में एक-एक प्रतिशत की कटौती कर उसे क्रमश: 5.5 प्रतिशत एवं 4 प्रतिशत पर ला दिया है। इससे बैंकों द्वारा कर्ज की ब्याज दरें और घटाने की अपेक्षा की गई है वहीं नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) में आधा प्रतिशत की कमी कर 20000 करोड़ रूपये की नकदी उपलब्ध कराने का उपाय किया गया है।
पिछले अक्टूबर माह से ऐसी कटौतियों के माध्यम से 140000 करोड़ रूपये की उपलब्धता पहले ही कराई जा चुकी है। इसके अतिरिक्त आधारभूत ढांचा और भवन निर्माण कंपनियों के लिये विदेशों से कर्ज लेना उदार बनाया गया है तथा कारपोरेट बाण्ड में निवेश सीमा 6 अरब डालर से 15 अरब डालर भी की गई है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को 25 हजार करोड़ रूपये की अतिरिक्त नकद सहायता के साथ राज्य सरकारों को भी अपने परिव्ययों के वित्त पोषण के लिये 30 हजार करोड़ रूपये की अतिरिक्त बाजार उधारी लेने की अनुमति भी दी गई है। इस राहत पैकेज से कुछ जिन्सों जैसे स्टील, सीमेण्ट, जिंक और फेरो आयल की मांग पर भी अनुकूल असर पड़ सकता है परंतु जिस तेजी से ये उद्योग संकट में फंसे हैं इसलिए उनमें अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। यदि पिछले महीने जारी किये गये आर्थिक पैकेज की समीक्षा की जाये तो उस समय के मौद्रिक उपायों से ऋण की ब्याज दरों को कुछ हद तक घटाया गया परंतु केवल इसी कारण से ऋण लेने वालों की तादाद बढ़ गई हो, ऐसा न होना था और न हुआ ही।
इसी प्रकार सेनवैट में 4 प्रतिशत की कटौती से स्टील, सीमेण्ट और आटोमोबाइल क्षेत्र में दाम घटे परंतु इनसे उनकी मांग में वैसा इजाफा नहीं हुआ जिनसे ये कारखाने अपनी वर्तमान क्षमता पर कार्य कर सकें। नतीजतन उत्पादन स्थगित करने और छंटनी होने जैसी खबरें आती रहीं और सरकार को उसके लिये उद्योगों से आग्रह करना पड़ा।
निर्यात क्षेत्र को भी पूर्व 350 करोड़ की राहत, प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना के लिये 1400 करोड़ रूपये तथा एक्सपोर्ट क्रेडिट गारंटी के तहत ऋण के लॉकइन पीरीयड में कटौती भी निर्यात क्षेत्र को अपेक्षित राहत नहीं दे सकी क्योंकि विदेशी व्यापार का मुद्दा अभी कम कीमतों का न होकर विकसित देशों में छाई गहरी मंदी का है जिसके कारण वहां के खरीददारों की जेबे खाली हैं।
जब विश्व के जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका से और 24.7 प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय संघ के देशों से आता हो तब वहां की अर्थव्यवस्थाओं में व्याप्त मंदी के चलते निर्यात कैसे बढ़ेगा? इसी के साथ जब हमारा सबसे बड़ा प्रतिस्पर्ध्दी चीन विश्व जीडीपी का 6 प्रतिशत हिस्सा रखता हो तब हमारे उपाय ''ऊंट के मुंह में जीरा'' ही लगते हैं।
मंदी से निपटने के लिये केन्द्र तथा राज्यों के राजकोष पर यदि नजर डाली जाये तो वह भी सिकुड़ रहा है। विगत वर्ष 40 प्रतिशत की उत्साहजनक वृध्दि को अब ग्रहण लग गया लगता है। नवंबर 2008 में पिछले वर्ष की तुलना में कुल कर संग्रह में 21 प्रतिशत की गिरावट आई जिसमें से प्रत्यक्ष करों के लिये यह गिरावट 36 प्रतिशत तो अप्रत्यक्ष करों के लिये 8.3 प्रतिशत थी। इसलिए मंदी से उबरने के लिये सरकारी खजाने खोलने का विकल्प सीमित होता जा रहा है।
यद्यपि सरकार ने एफआरबीएमए एक्ट के राजकोषीय घाटे के 3 प्रतिशत के लक्ष्य को तिलांजलि देकर उसे 5 प्रतिशत तक बढ़ाने का मन बना लिया है परंतु कर संग्रह में होने वाली कमी से इसके और भी बढ़ने की आशंका है। ऐसा होने पर सरकारी कर्ज के फिर बेलगाम होने का खतरा है जो देश की अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीन सेहत के हिसाब से ठीक नहीं है।
मंदी के खिलाफ इन सरकारी उपायों की संदेहास्पद उपलब्धियों से क्या यह समझा जाये कि ये सरकारी पैकेज निष्प्रभावी हैं? नहीं, जब खुली अर्थव्यवस्था के सभी पैरोकार सरकारी सहायता और संरंक्षण की नीति पर चल पड़े हों तब हमारा ऐसी सहायता से मुंह मोड़ना कतई ठीक नहीं है परंतु इस फौरी इलाज के अलावा मर्ज का स्थायी हल करने के लिये तो बड़ा आपरेशन करना पड़ेगा।
जो मोटे निष्कर्ष इस संकट से उभरे हैं वे यह बताते हैं कि मात्र विकास दर नहीं, समावेशी विकास दर की ओर मजबूती से बढ़ना होगा। साथ ही कर्ज आधारित मांग के स्थान पर आय आधारित मांग बढ़ाने की योजनाओं पर अधिक तेजी से अमल करना होगा।
जहां तक सरकारी खर्च बढ़ाने की बात है वहां खजाने के घड़ों के छिद्रों को बंद करने की व्यवस्था यदि नहीं की जाती तो राहत पैकेज का कागजी साबित होना और काले धन को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। अत: मर्ज को ठीक करने वाली दवा के लिये तो उन आर्थिक विचारकों को पुन: खंगालना होगा जो समाजवाद और पूंजीवाद की चकाचौंध में गुम हो गये हैं। देश के बुध्दिवादियों के लिये यह एक बड़ी चुनौती है।
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