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अब सज्जनों को बनना होगा समर्थ..

समाज का लगभग हर तबका सार्वजनिक या चौपाली चर्चाओं में इस बात के लिये घड़ियाली आंसू बहाता दिखाई देता है कि हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास तेजी से हो रहा है। समाज में बढ़ने वाली उच्छंखलता, बढ़ता भ्रष्टाचार, राजनैतिक कदाचरण और अनुशासनहीनता के प्रति उनका जो आक्रोश चर्चाओं में दिखाई देता है उससे यह भ्रम होता है कि जो कुछ भी घट रहा है वह उन कारणों से है जिनका समाज के इन चौपाल लम्बरदारों और नकाबपोश ईमानदारों से कोई लेना-देना नहीं है।

कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि बस अब गुस्से से उबलने वाला यह वर्ग बेईमान और भ्रष्ट लोगों की गर्दन पकड़ने ही वाला है। अगर कोई सिरफिरा इन बातों से प्रभावित होकर एक्शन में आ जाता है तो थोड़े ही समय में वह अपने को अकेला पाता है जिससे बेईमानों की गैंग को उसके हौसले पस्त करने का अवसर मिल जाता है। यह जानना भी कम मजेदार नहीं है कि ऐसा होने पर ये चौपाली सूरमा क्या करते हैं।
अब इनकी भूमिका बदल जाती है। ये अब सलाहें देने लगते हैं। ये सलाहें कैसी होती हैं उनकी भी बानगी देखिए। ''जमाने के साथ चलना सीखो'', ''एडजस्ट करो'', ''अपने काम से काम रखो'', ''आप मरे जग डूबा'', ''तुम क्या हरीशचंद्र की औलाद हो'', ''जियो और जीने दो'' जैसी सलाहें दी जाती हैं। ये सलाहें अगर परिवार के सदस्यों के दिमाग में फीड कर दी जायें तो फिर क्या कहने? घर और बाहर दोनों के प्रेशर क्रांतिकारी सोच की हवा निकालने को काफी होते हैं। तब भ्रष्टाचारी और बेईमान भी निश्चिंत रहते हैं और चौपाली चर्चाएं भी जिंदा बनी रहती हैं भले ही उनमें आत्मा गायब हो।
हमारे समाज का यह दृश्य जिंदा लाशें बना रहा है। सत्य और ईमानदारी के लिये लड़ने वालों के हौसले पस्त कर रहा है। यह बेईमानों को बेशर्म और निर्द्धंद भी बना रहा है और इससे भी बढ़कर "कोई बदलाव नहीं हो सकता'' ऐसी हताशा भी आम लोगों के मन में भर रहा है। क्या यह भी उन्हीं बेईमानों और मक्कारों का षडयंत्र तो नहीं है जो विरोध की हर चिंगारी को राख करना चाहते हैं। इस संबंध में वीर सावरकर के बचपन की एक घटना का जिक्र करना मौंजू होगा।
एक दिन वीर सावरकर की शाला में शिक्षक ने एक कहानी सुनाई जिसमें एक संत के नदी में नहाकर निकलने पर एक दुष्ट द्वारा उन पर थूकने का कृत्य किया गया। संत ने शांत भाव से पुन: नहाया। दुष्ट ने पुन: उन पर थूका और यह क्रम 120 बार चला तब दुष्ट का मन बदला और उसने संत से माफी मांगी। इस कहानी को सुनाकर शिक्षक ने छात्रों से यह जानना चाहा कि उन्हें इससे क्या शिक्षा मिली। लगभग सभी छात्रों ने संत की सहनशीलता की तारीफ की।
जब वीर सावरकर की बारी आई तो उन्होंने कहा कि श्रीमान् जिस समय की आप घटना सुना रहे हैं उस समय संभवत: गांव के सभी लोग नदी में नहाते होगें। जब संत पर दुष्ट थूक रहा था तब भी कई लोग नदी में नहा रहे होगें। न वे संत थे और न ही दुष्ट। तब उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आया। उन्होंने उस दुष्ट की पिटाई क्यों नहीं कीं। मुझे तो इस घटना से यह शिक्षा मिली कि जब तक सज्जन लोग समर्थ बनकर दुष्टों को नहीं रोकेगें तब तक एक दुष्ट भी कई लोगों की भीड़ को परेशान करता रहेगा। वीर सावरकर ने अपनी इस शिक्षा को जीवनभर जिया। क्या हमें आज वीर सावरकर के वर्षों पुराने निष्कर्ष में कुछ भी बदला हुआ लग रहा है? तब हमें क्या करना चाहिये यह साफ ही है।


जीएल
पुणतांबेकर, रीडर, डॉ० हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मप्र

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